दिल्ली की मैट्रो लाइन देश की तो सब से बड़ी अंडरग्राउंडओवरग्राउंड रेल सेवा है ही, यह दुनिया की बड़ी मैट्रों में से भी एक है. आजकल विवाद चल रहा है कि यह सस्ती रहे ताकि लोग सड़कों का इस्तेमाल न करें या मुनाफे में चलें. यह सवाल टेढ़ा है, क्योंकि फिलहाल मैट्रो के जो पर्याय सड़कों पर उपलब्ध हैं, वे सस्ते हैं क्योंकि वे घर तक पहुंचते हैं. बाइक और कार सुविधा, समय और कीमत के मुकाबले में मैट्रो से ज्यादा महंगे नहीं हैं और इसीलिए जैसेजैसे मैट्रो का किराया बढ़ रहा है सवारियां घट रही हैं. गरीब देशों की यह सब से महंगी मैट्रो है. केंद्र सरकार और दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार इस मामले में उलझ रही हैं क्योंकि अरविंद केजरीवाल इसे सस्ता रखना चाहते हैं पर केंद्र के पास सस्ता रखने के लिए होने वाले नुकसान को भरने का पैसा नहीं. केंद्र के लिए सरदार पटेल की मूर्ति, कुंभ मेला, चारधाम यात्रा जैसे सर्कस ज्यादा जरूरी हैं बजाय दिल्ली के लोगों को सड़कों पर फैले जंजाल से मुक्ति दिलाने के. केंद्र सरकार को दिल्ली वालों की चिंता नहीं है शायद तभी उस ने अपनी जमीन पर उगे 36 हजार बड़े घने पेड़ काट कर सरकारी कर्मचारियों के रहने लायक स्लमनुमा हजारों फ्लैट बनाने की योजना बना रखी है.

मैट्रो सस्ती होगी तो नुकसान यह होगा कि एक वर्ग का खयाल रखने वाले गाड़ी वाले इस में चलने बंद हो जाएंगे. महंगी होगी तो कामगार नहीं जाएंगे, जो 5-10 रुपए रोज बचाने के लिए भारी प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों पर चलने को तैयार हैं. केंद्र सरकार, जिस की कंपनी मैट्रो चलाती है, इस बारे में बीचबचाव नहीं करना चाहती, क्योंकि वह ऐसा कदम नहीं उठा सकती जिस का राजनीतिक लाभ अरविंद केजरीवाल उठा सकें. वह तभी से खिन्न है जब अरविंद केजरीवाल ने 70 में से 67 सीटें जीत कर नरेंद्र मोदी की 2014 की विजय पर काली स्याही पोत दी थी.

मैट्रो को राजनीतिक खेल से बचाना जरूरी है. इसे सभी के लिए सुलभ बनाना होगा. हो सकता है कि इस में प्रथम व साधारण बोगियां लगाई जाएं ताकि गाड़ी वाले भी चलें और कामगार भी. यह वर्गीकरण बुरा लग सकता है पर सड़कों से गाडि़यां कम करने के लिए कारगर सिद्ध हो सकता है. आखिरी मील पर भी इसी तरह की छूट हो. लोग सस्ते से महंगे वाहन स्टेशन से घर तक ले सकें. सड़कें और दिल्ली की सेहत जरूरी होनी चाहिए न कि राजनीति और बराबरी का सिद्धांत.

मैट्रो में स्कूली बच्चों को लाने ले जाने के भी इसी तरह के प्रबंध होने चाहिए. कुछ घंटों के लिए कुछ कोच सिर्फ स्कूलों के लिए निर्धारित हों. छोटे बच्चों को स्कूल तक छोड़ने के लिए जोड़ा टिकट भी बनवाए जा सकते हैं ताकि पीक ट्रैफिक के समय स्कूली बच्चे मातापिता की गाडि़यों या घटिया वैनों में चलने को मजबूर न हों. मैट्रो एक टैक्नोलौजी की नियामत है, इसे मुनाफे या राजनीति के पत्थरों पर बलि न किया जाए.

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