आंग सान सू की का जन्म 19 जून, 1945 में हुआ था. उन के पिता आंग सान बर्मा की स्वाधीनता सेना में कमांडर थे. मां रिवन की रंगून जनरल अस्पताल में नर्स थीं. आंग सान इन की तीसरी संतान थीं.

आंग सान के पिता बर्मा को स्वतंत्रता दिलाने वाले खास व्यक्ति थे. बर्मा की जनता के लिए वे सदैव राष्ट्रपिता रहेंगे. 1947 में जब आंग सान सू की मात्र 2 वर्ष की थीं तब राजनीतिक षड्यंत्र की वजह से उन के पिता की हत्या कर दी गई थी.

1960 में आंग सान दिल्ली आईं और लेडी श्रीराम कालेज से बी.ए. की डिगरी ली. फिर औक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से फिलौस्फी और राजनीतिशास्त्र व अर्थशास्त्र में डिगरी ली.1972 में उन का विवाह माइकल एरिस से हुआ.

संघर्ष की शुरुआत

घर के कामों से बचे वक्त को आंग सान लेखन में लगाती थीं. हिमालय स्टडीज पर वे पति की मदद भी करती थीं. 1988 में उन की मां काफी बीमार हो गईं. उन के जीवन का यह निर्णायक मोड़ था. अपने पति व बच्चों को छोड़ कर वे एक ऐसी राह चल पड़ीं जो ऊबड़खाबड़ व पथरीली थी. उन्होंने तानाशाही के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया. सैनिक प्रशासन उन्हें दबाने की कोशिश कर रहा था. उन्हें तरहतरह से डरा रहा था. मगर बिना किसी खौफ के वे तानाशाही के खिलाफ लड़ती रहीं. सैनिक सरकार ने बिना वजह बताए उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया.

एक बार एक राजनीतिक रैली के वक्त एक सैनिक ने उन की तरफ राइफल तान दी तो वे तन कर खड़ी हो गईं. बोलीं, ‘‘कर लो जो भी जुल्म करना चाहते हो, मगर मुझे मेरे मकसद से नहीं हटा पाओगे.’’

इस घटना के 3 माह के बाद आंग सान सू की अपने घर में छात्रों के एक समूह को संबोधित कर रही थीं. तभी सैनिकों ने उन के घर में घुस कर छात्रों को पकड़ कर जेल में बंद कर दिया तथा आंग सान सू की को उन्हीं के घर में नजरबंद कर दिया. इस अत्याचार के खिलाफ आंग सान सू की ने भूख हड़ताल कर दी. भूख हड़ताल के वक्त उन के दोनों बेटे उन्हीं के पास रहने आ गए. बाद में उन के पति भी भूख हड़ताल के तीसरे दिन रंगून पहुंच गए. भूख हड़ताल से कोई बड़ा हादसा न हो जाए, इस डर के चलते सरकार ने छात्रों को जल्द ही रिहा कर दिया.

सरकार के सामने समस्या थी कि चुनाव सिर पर थे. आंग सान सू की नजरबंद थीं. सरकार को यह गलतफहमी थी कि उन की गैरमौजूदगी में विपक्ष के लोग टूट जाएंगे. मगर आंग सान की नजरबंदी के बावजूद उन की पार्टी संसद में 82% सीटें जीत गई. तब भी सेना ने कहा कि वह आंग सान को सत्ता नहीं देंगे. इस ज्यादती से कई देशों के विरोधी स्वर उभरे. आंग सान के इस महान काम को देख कर अक्तूबर, 1990 को उन्हें ‘राफ्तों ह्यूमन राइट्स पुरस्कार’ से नवाजा गया. इस के अगले साल उन्हें यूरोपीय पार्लियामैंट ने ‘सखारोव ह्यूमन राइट्स पुरस्कार’ से नवाजा.10 जुलाई, 1991 को नोबेल समिति ने उन्हें शांति पुरस्कार देने की घोषणा की.

बाद में म्यांमार की सैनिक सरकार ने आंग सान के सामने यह शर्त रखी कि यदि वे राजनीति और बर्मा छोड़ कर चली जाएं तो वह उन्हें आजाद कर देगी. मगर आंग सान अपने देशवासियों की उन उम्मीदों को तोड़ कर नहीं जा सकती थीं जो उन्हें उन से थीं. आंग सान ने नोबेल पुरस्कार की रकम बर्मी लोगों के स्वास्थ्य व शिक्षा के लिए बनाई गई एक ट्रस्ट को दे दी.

हिम्मत नहीं हारी

जब उन के बच्चे छोटे थे और मां को लकवा मार गया था तब वे घरबार छोड़ मां के पास चली गई थीं. उन की खूब सेवा की. इस के बाद जब वे बर्मा लौटीं तो उस समय क्रूर शासन के खिलाफ लोगों में विद्रोह फूट रहा था. इसी दौरान आंग सान ने आम चुनाव की मांग रखी. अपनी जीत निश्चित समझ शासन ने उन की यह मांग स्वीकार कर ली. अब सरकार का दमनचक्र शुरू हो गया.

सरकार ने 4 से ज्यादा लोगों के एक स्थान पर एकत्र होने पर पाबंदी लगा दी व बिना कारण बताए वह किसी को भी जेल में डाल सकती है, इस बात का भी ऐलान कर दिया. तब आंग सान सू की ने ‘नैशनल लीग फौर डैमोक्रेसी’ दल का गठन किया. वे खुद इस की महासचिव बनीं. उन का कहना था कि वे अहिंसा की पुजारी हैं और हिंसा के खिलाफ उन की लड़ाई जारी रहेगी. चुनाव में उन्होंने भारी मतों से विजय हासिल की. उन्होंने दर्द भरे दिनों में ‘फ्रीडम फ्रौम फीयर’ किताब भी लिखी.

आंग सान सू की को कई बार बंदी बनाया गया और कई बार रिहा किया गया. देश में कहीं भी वे आ जा नहीं सकती थीं. एक बार सरकार ने इन की सभा पर हमला किया और इन पर हिंसा भड़काने का इलजाम लगा दिया गया. इन्हें जेल में बंद कर दिया गया. इन्हें पति व बेटों से मिलने की इजाजत भी न थी. पति कैंसर से पीडि़त थे. 1999 में पति की मृत्यु हो गई पर उन्हें पत्नी से नहीं मिलने दिया.

2012 में चुनाव में भाग ले 45 में से 43 सीटें जीत कर इन्होंने साबित कर दिया कि जनता का इन पर कितना भरोसा है. 24 सालों के बाद वे विदेश गईं. अमेरिकी सरकार ने उन्हें अपनी संसद के स्वर्ण पदक से नवाजा. यह वहां का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है.

लंबे संघर्ष के बाद अपने देशवासियों को उन का मूलभूत अधिकार दिला कर आंग सान सू की ने यह साबित कर दिया कि सच की सदैव जीत होती है.

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