देश की आर्थिक प्रगति को जीडीपी यानी ग्रौस डोमैस्टिक प्रोडक्शन से आंका जाता है. इस का मतलब है कि देश भर में कुल कितना सामान बनाया गया. भारत सरकार खुश हो रही थी कि भारत की जीडीपी में बढ़ोतरी सब से तेज है और अरुण जेटली की तर्ज पर नरेंद्र मोदी भी बारबार कहते थे कि यह उन की वजह से हो रहा है, जबकि इस की वजह चीन व कुछ और देशों का धीमा हो जाना है और भारत का नए तरीके से आंकड़े देना है.
पर यह बढ़ोतरी या कुल जीडीपी अपनेआप में दिल बहलाने का गालिब बहाना है. अपनी जनसंख्या के अनुसार हम अमेरिका, यूरोप तो छोडि़ए चीन, कंबोडिया, वियतनाम, सिंगापुर से भी कहीं पीछे हैं और इस नोटबंदी ने हमें और पीछे धकेल दिया है. प्रधानमंत्री अब कहने लगे हैं कि वे तो फकीर हैं, झोला ले कर निकल जाएंगे पर उन्हें देश भर को तो फकीर बना डालने की इजाजत नहीं थी.
भारत जो चीन से आबादी में लगभग बराबर होने के बावजूद धन संपत्ति के मामले में उस का 5वां है जीडीपी के हिसाब से और अमेरिका के मुकाबले 6 गुना बड़ा होने के बावजूद जीडीपी में 8वां है, तो क्या यह किसी तरह रोब मारने लायक है? भारत तो उस बाई की तरह का है जिसे नई कांजीवरम साड़ी पहनने को मिल गई हो और मालकिन पर इतराते हुए कहने लगे कि वह मालकिन की तरह खाना बनाएगी, झाड़ू नहीं लगाएगी, क्योंकि उस के पास भी कांजीवरम साड़ी है.
नोटबंदी से सरकार ने करोड़ों लोगों को लाइनों में लगवा कर उन का उत्पादन छीन लिया. फैक्टरियां, खेत, बाजार सूने हो गए, क्योंकि लोगों को लाइनों में लगना पड़ा. बच्चों को भूखा रहना पड़ा, क्योंकि मांओं को लाइनों में लगना पड़ा. गोद के बच्चों को गरमीसर्दी सहनी पड़ी, क्योंकि वे मां की गोद में 8-8 घंटे लाइन में रहे. इन लाइनों ने भारत को जीडीपी की कतार में और पीछे धकेल दिया है. 7.4% की रफ्तार से आगे बढ़ने वाला देश अगर अब 4 या 5% पर आ कर चीन से बढ़ोतरी में भी पीछे चला जाए तो आश्चर्य नहीं.