अरुण जेटली के नए बजट में एक भी ऐसी छूट नहीं दिखी जिस से लगे कि नोटबंदी के कारण जो सजा पूरे देश को मिली थी और अभी भी चालू हो, उस का कुछ मुआवजा घरवालियों को देने की कोई नीयत हो. सरकार के पास बजट एक ऐसा माध्यम होता है जिस से वह कुछ छूट दे कर जनता को सांत्वना दे सकती है पर घरघर में हुई दिक्कत पर न प्रधानमंत्री को कोई गम है न ही वित्तमंत्री को.

अगर नोटबंदी जाली नोटों अथवा आतंकवाद या कालाधन रखने वालों के कारण की गई थी तो करोड़ों घरों को सजा देने का औचित्य ‘मित्रों’ वाली सरकार आज तक स्पष्ट नहीं कर पाई. सरकार का हुक्म तो ऐसा था मानो सास ने कह दिया कि सारे बहूबेटे रोज 5 बजे उठें और मन करे या न करे उन के पैर छू कर जरूर जाएं. एक निरर्थक आदेश जिस का कोई लाभ नहीं पर हिटलरी अंदाज में अपनी ताकत दिखाना.

बजट में सरकार कुछ सहूलतें आसानी से दे सकती थी. खानेपीने की चीजों पर सर्विस टैक्स समाप्त करा जा सकता था, साडि़यों पर उत्पाद शुल्क हटाया जा सकता था, कौस्मैटिक्स को दवाओं की श्रेणी में रख कर कर मुक्त करा जा सकता था. इन से सरकार को आमदनी कम होती पर ज्यादा नहीं पर औरतों को तो लगता कि उन्हें नोटबंदी के कहर का कुछ मुआवजा तो मिला.

असल में हर शासक के सिर पर ताकत का भूत चढ़ ही जाता है. नरेंद्र मोदी के इतने गुणगान उन की पार्टी ने ही नहीं मध्यवर्ग ने भी गाए कि उन्होंने सोचना शुरू कर दिया कि उन के फैसले उस राजा की तरह के हैं, जो बिना कपड़े पहन कर बाजार में निकला था यह सोच कर कि उस ने विशिष्ट कपड़े पहन रखे. सरकार ने नोटबंदी यह सोच कर लागू की थी कि इस से धड़ाधड़ कालाधन सरकार के हाथ में आएगा और जनता पर टैक्स लगाए बिना खजाना भर जाएगा. अब जब सरकार के पल्ले न के बराबर कुछ पड़ा है तो वह खिसियाई हुई है और बजट में उस ने कुछ भी छूट नहीं दी है.

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