राजनीति के असर में अब संतों का जातीकरण होने लगा है. इधर कुछ वर्षों से ब्राह्मणों की तर्ज पर पिछड़ी जातियां अपनीअपनी जातियों के संतों को खोजखोज कर सामने ला रही हैं ताकि ब्राह्मणों की बराबरी की जा सके या उन्हें बताया जा सके कि संत सिर्फ उन की बपौती नहीं, हमारी जातियों में भी संतमहात्मा हैं.

इस अभियान को सब से ज्यादा हवा आबादी के लिहाज से वोटबैंक के रूप में जानी जाने वाली दलित जाति ने दी. संत रविदास इस की मिसाल हैं. इन के नाम पर पार्कों, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, यहां तक कि भव्य मंदिर व घाटों का निर्माण तक, आम जनता की गाढ़ी कमाई से जमा पैसों से कराया गया ताकि प्रतिस्पर्धा के युग में इन का नाम दब न जाए.

अब इन की देखादेखी धोबी समाज भी अपनी जाति के ‘संत गाडगे’ की जयंती मनाने लगा है. भविष्य में अहीर, कुर्मी, पासी, लोहार, नाई आदि जातियां भी अपनेअपने संतों को खोज लें तो कोई आश्चर्य नहीं.

शायद ही किसी को मालूम होगा कि संत गाडगे भी कोई संत रहे. जब चेतना जगी, आवागमन सुगम हुआ तो महाराष्ट्र से इन्हें खोजा गया. फिर दूसरे प्रांतों ने अपने यहां उन्हें ला कर जयंती मनानी शुरू कर दी. शोभायात्रा निकलने लगी और वे तमाम तामझाम होने लगे जो पाखंड के रूप में सदियों से हिंदू समाज करता आ रहा है. धोबी समाज सार्वजनिक छुट्टी की भी मांग कर सकता है, क्योंकि जब तक छुट्टी न हो, महापुरुष व संतों का कद ऊंचा नहीं होता.

संतों को जाति से जोड़ने का क्या औचित्य है जबकि हम उन्हें जातिपांति भाषा, प्रांत से ऊपर मानते हैं? उन संतों का क्या होगा, जो सभी जातियों में लोकप्रिय हैं? क्या भविष्य में सभी संतों का जातीकरण हो जाएगा?

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