हौस्पिटल की तरफ से जवाब में कहा गया कि डिस्चार्ज करते समय उस के महत्वपूर्ण अंग सही काम कर रहे थे. वह पूरी तरह हाइड्रेटेड थी और उसे चेस्ट या यूटीआई इंफेक्शन भी नहीं था. 15/10/1911 से 17/10/1911 तक वह क्लीनिकली स्टेबल थी इसलिए उसे दवाओं के साथ डिस्चार्ज कर दिया गया.
स्टेट कमीशन ने विनोद कुमार के पक्ष में फैसला सुनाया और उन्हें 15,00,000 का कंपनसेशन और इलाज पर 51 हजार खर्च हुए रुपए वापस लेने का आर्डर किया. इस फैसले के खिलाफ हॉस्पिटल मैनेजमेंट ने एनसीडीआरसी में अपील किया. एनसीडीआरसी का फैसला हॉस्पिटल के पक्ष में रहा और किसी भी तरह के चिकित्सीय लापरवाही की संभावना से इनकार करते हुए कहा कि इसे गलत डायग्नोसिस का केस भले ही कहा जा सकता है मगर यह चिकित्सीय लापरवाही का केस बिल्कुल भी नहीं है. मरीज को बहुत सारी बीमारियां थी. कई तरह के कैंसर भी हो चुके थे. उन्हें बाद में दुसरे हॉस्पिटल में भी एडमिट किया गया. इसलिए रेस्पॉन्डेंट्स यानि हॉस्पिटल मैनेजमेंट पर जुर्माना किया जाना उचित नहीं.
फॉर्टिस हॉस्पिटल द्वारा जारी किए गए मेडिकल सर्टिफिकेट के मुताबिक मल्टी ऑर्गन फेलियर की वजह से सेप्टिक शौक मौत की मुख्य वजह है. इस के अलावा डायबिटीज कंडीशन, मल्टीपल मैलिग्नेंसी और पोस्ट कीमो और रेडियोथैरेपी जैसी वजह भी उन की मौत के लिए जिम्मेदार है.
जाहिर है लंबी कानूनी कार्यवाहियों में फंस कर पैसा और रहासहा सुकून गंवाना सब के वश की बात नहीं. लम्बे कोर्ट केस के बाद यदि फैसला पक्ष में न हो तो सारी मेहनत और दौड़भाग पर पानी फिर जाता है. क्यों कि चिकित्सीय लापरवाही साबित कर पाना एक टेढ़ी खीर है. यही वजह है कि प्राइवेट अस्पतालों की मनमानियों का शिकार होने के बावजूद लोग सब सह जाते हैं और केस दर्ज नहीं कराते.
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