ब्रिटेन में एक युगल को गोद लेने का अधिकार खोना पड़ा, क्योंकि वह युगल सिख है और भारतीय मूल का है. वह युगल गोरे बच्चे को गोद लेना चाहता था, लेकिन गोद एजेंसी के अधिकारियों ने सिख युगल से भारत में ही किसी बच्चे को गोद लेने को कहा.  ऐसा नहीं है कि इंटररेशियल गोद लेने पर पाबंदी है. सैकड़ों भारतीय बच्चे गोरे मातापिताओं की गोदों में जा कर यूरोप व अमेरिका में रह रहे हैं और उन की भाषा, व्यवहार, सोच बिलकुल वहां के वातावरण की तरह है, क्योंकि वे बचपन से उसी माहौल में रह  रहे हैं.  प्रश्न है कि वह सिख दंपती आखिर क्यों गोरा बच्चा ही गोद लेना चाहता था? अगर उस का कारण अपनी नस्ल सुधारना नहीं है तो क्या है?

हम भारतीय आमतौर पर गोरों की रंगभेद नीति का पुरजोर विरोध करते हैं पर जो भेदभाव हमारे यहां गोरेकाले में है वह शायद अमेरिका में भी नहीं है, जहां काले अफ्रीका से गुलामों की तरह लाए गए थे.

हमारे देश में निम्न जातियों में अधिकांश काले ही हैं और हमारे गोरेपन के पागलपन के पीछे कारण यह है कि काले को नीची जाति का समझा जाता है. अगर ऊंची जातियों में आनुवंशिक कारणों से काले रंग का बच्चा पैदा हो जाए तो उसे जीवन भर हीनभावना से ग्रस्त रहना पड़ता है और यह उस के मानसिक व आर्थिक विकास में आड़े आता है. उसे आमतौर पर साक्षात्कारों में कम अंक मिलते हैं.

विवाह के समय तो रंग काफी महत्त्व की बात मानी जाती है.  सांवली सूरत मोहक नहीं होती, ऐसा नहीं है. कुछ समय पहले तक देश की अधिकांश नर्तकी वेश्याओं का रंग काला ही होता था, क्योंकि वे उन जातियों से आती थीं जहां काले रंग वाले ही होते थे. दक्षिण भारत से कितने ही मेधावी विचारक, वैज्ञानिक, लेखक काले थे पर फिर भी उन्हें गोरों के मुकाबले की जगह नहीं मिली.  ब्रिटेन के सिख युगल को एक तरह से सही उत्तर दिया गया कि जो समाज इतना रंगभेदी है, उसे भला गोरे क्यों प्रोत्साहित करें. फिर गोरे खुद भी तो रंगभेद में विश्वास करते हैं. सदियों से साथ रहने के बावजूद वे कालों को अपने में मिलाने को तैयार नहीं हैं.

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