यदि हम बात करें मनाए जाने वाले त्योहारों की तो सारे त्योहार आपस में प्यार व खुशी का संदेश ही देते हैं. रक्षाबंधन भाईबहन का प्यार, दीवाली बुराई पर अच्छाई की जीत, होली खुशी व उल्लास के लिए मानते हैं. इस के अलावा कुछ अन्य त्योहार जैसे पोंगल, बैसाखी आदि खेती से संबंधित त्योहार हैं, जो यह दर्शाते हैं कि जब काम का वक्त था जम कर काम किया और जब फसल पकी तो खुशियां मनाओ जोकि एक तरह से व्यवस्थित रहने का तरीका भी है. लेकिन इन खूबसूरत त्योहारों को धर्म, समाज व भाषा में बंटते देख मन बड़ा ही व्यथित हो जाता है.

यह मेरा धर्म यह तुम्हारा धर्म

कुछ वर्षों पहले की बात है. मैं हैदराबाद में तबादले के कारण गई थी. वहां एक अपार्टमैंट में नवरात्र स्थापना यानी कि गुड़ी पड़वा मनाया जाना था. उस के पहले ही अपार्टमैंट के 2 गुटों में विवाद हो गया. एक गुट जो वर्षों से अपार्टमैंट में इस त्योहार को अपने तौर पर मना रहा था और सारे लोग उस में शामिल भी हो रहे थे, वहीं दूसरा गुट आ गया और काफी झगड़े के बाद यह तय हुआ कि इसे बतुकम्मा के नाम से और उसी के रीतिरिवाजों के हिसाब से मनाया जाए. खैर काफी बहस के बाद उसे बतुकम्मा के नाम से मनाया गया. आकर्षक फूलों की सजावट हुई, पंडितों को बुलाया गया, पूजापाठ हुए और केबल टीवी पर उस का लाइव प्रसारण भी हुआ. यह सब हुआ अपनेआप को मानने वाले गुट के जमा किए पैसों और मैनेजमैंट से.

इस तरह के त्योहारों को लोग अलगअलग नाम से मानते हैं, लेकिन इस को मनाने के पीछे चाहे सब का उद्देश्य एक ही है, लेकिन अपने पंडितों के बताए रीतिरिवाजों और अपने जाति, भाषा या क्षेत्र का अहं जब तक शांत न हो कुछ लोगों को त्योहार का मजा ही नहीं आता.

अब कोई उन लोगों से यह पूछे कि ये रीतिरिवाज और धर्म आया कहां से? तो शायद किसी को पता नहीं होगा. सही माने में तो असली रीतियां भी किसी को पता नहीं लेकिन जो पंडित ने बताया वह सब किया और उस के एवज में पंडित को भारी दक्षिणा मिली.

गणपति के लिए चंदा इकट्ठा किया गया तो कुछ पंजाबी लोगों ने यह कह चंदा देने से इनकार कर दिया कि हमारी लोहड़ी तो नहीं मनाते यहां. दोनों में एक खटास धर्म के नाम पर पड़ गई जबकि कहने को धर्म एक ही था.  ऐसे में यह सवाल अहम है कि हम धर्म, राज्य, जाति, भाषा के नाम पर त्योहारों को क्यों अलग करते हैं? त्योहार मनाने के पीछे सिर्फ खुशी के भाव नहीं, बल्कि सभी से मिलेंजुलें, अच्छे परिधान पहनें, लजीज पकवान बनाएं और चेहरे पर मुसकान बिखेरें. लेकिन उस में भी हमारे धर्म, समाज, भाषा पहरेदार बन कर खड़े हो  जाते हैं.

त्योहारों में अगर इन झगड़ों से किसी का भलाहोने वाला है तो सिर्फ पंडेपुजारियों का और धर्म व समाज के ठेकेदारों का.  धर्म की बेलें जहां फलों से लदने लगती हैं वहीं हमारे धर्मगुरु मठाधीश अपने धर्म की तूती बजाने निकल पड़ते हैं और उन के चेले अलगअलग युक्तियों से उन का प्रचार करते हैं.

ऐसे ही धर्म व समाज के ठेकेदार अपने मठों में खुशीखुशी दूसरे धर्मों के नेताओं की चिलम भरते हैं. बस उन्हें उन धर्मगुरुओं से कुछ फायदा चाहिए. जहां अपने चेलों को दूसरे धर्म के खिलाफ भड़काते हैं, वहीं स्वयं जरा से फायदे के लिए दूसरे धर्म के ठेकेदारों को अपने आयोजनों में स्टेज पर मालाएं पहनाते हैं. रही बात समाज की तो समाज तो स्वयं संस्कृति का मुखौटा ओढ़े इस पल इधर तो उस पल उधर रहता है जैसे ही कोई पैसे वाला या कोई अन्य ताकत अपने हाथ में ले कर समाज में दाखिल होता है उसी के हिसाब से समाज के नियम, कानून बदल जाते हैं.  धार्मिक आयोजन में यदि कोई सरकारी ताकत हाथ में हो तो कहने ही क्या. पूरी सोसायटी उस के त्योहार को अपना मानने लगती है, चाहे पीठ पीछे बुराई करेंगे पर सामने सब मुसकान बिखेरते उस में शामिल होने के लिए तत्पर रहेंगे.

स्वयं के फायदे के लिए नहीं है त्योहार

अभी पिछले वर्ष की ही बात है. कुछ विदेशी वस्तुओं के प्रेमी लोग भी होते हैं. बस ऐसी ही महिला को एक विदेशी महिला से दोस्ती बढ़ाते देखा. थोड़े दिन बाद ही उसे क्रिसमस ट्री डैकोरेशन के लिए बच्चों समेत विदेशी महिला के घर जाते देखा. जबकि वह महिला स्वयं आए दिन पूजापाठ कराने के लिए पंडितों को घर में बुलाती रहती. आज सत्यनारायण कथा तो कल वट सावित्री व्रत. और सिर्फ जो रीत वह निभाए वही सही होती, अन्य सभी महिलाएं उसे जबरन मानें वरना जो न मानें उस का पत्ता कट.

बड़े व्यवसाई की पत्नी हैं तो दूसरी महिलाएं भी उस के घर हर तीजत्योहार मनाने सजधज कर चल देतीं. उन्हीं पिछलग्गू महिलाओं में से एक के मुंह से पीठ पीछे से बोलते सुना, ‘‘विदेशी वस्तुओं के चक्कर में मैडम क्रिसमस  भी मनाने लगीं और उस फिरंगी से दोस्ती भी  बढ़ा ली.’’  इस वर्ष भी कुछ नए विचारों के लोगों ने गणपति पूजा पर विभिन्न पदार्थों को ले कर  गणेश की प्रतिमा बनाई. किसी ने मिट्टी की बनाई जिस में खाद व बीज भी मिला दिए ताकि पूजा के बाद उसे सीधे गमले में लगा दिया जाए. न तो उस के पैरों में आने की संभावना और न  ही प्रदूषण. कहने को तो बड़ा नेक विचार पर पंडितों ने उस में कमी ढूंढ़ ली कि फिर विसर्जन कैसे होगा?

वहीं किसी  ने चौकलेट के गणपति बनाए ताकि पूजा के बाद उसे दूध में मिला दिया जाए और वह दूध गरीब बच्चों को पिला दिया जाए.  कुछ महिलाओं के इस पर विचार सुने- किसी ने कहा चौकलेट की बिक्री का तरीका है, तो किसी ने कहा जिस गणपति की पूजा करो उसे ही दूध बना कर पी जाओ, ये कैसी गलत विधि है पूजा की. यहां सोचने की बात यह है कि त्योहार में खुशियां ढूंढ़ें और बांटें भी. आपस में एकदूसरे की कमियां न ढूंढ़ें.

नकारें नहीं अपनाएं

अकसर देखा गया है एक ही भाषा के लोग जब अपने उत्सव मनाते हैं, तो उन के रीतिरिवाज, पहनावा, खानपान सब एक जैसा ही होता है. ऐसे में यदि कोई एक महिला दूसरी भाषा की हो तो उसे शामिल कर लेने में कोई बुराई तो नहीं. उसी उत्सव को वह अपने हिसाब से मना ले आप सभी के साथ और आप भी उस नई महिला की रीतियां अच्छी लगें तो अपना लें. लेकिन नहीं, हमारे यहां तो अपनी भाषा के लोग मिलते ही दूसरे को झट से नकार दिया जाता है. जबकि भाषा तो सिर्फ संचार का माध्यम होती है. आप अपनी बात किसी को कह सकें, भाषा का औचित्य वहीं तक है, लेकिन उस को ले गुटबाजी करना और त्योहार में भी आपस में बंट जाना कहां तक सही है?

और तो और हमारा सोशल मीडिया भी इस में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. जैसे ही कोई त्योहार आता है, पहले से ही सोशल मीडिया उस उत्सव से संबंधित पोस्ट शेयर करने लगता है और फिर गुहार लगाता है कि इस वर्ष फलां उत्सव कुछ ऐसे मनाएं, वैसे मनाएं और लाइक करें.  कोई भी धर्म, भाषा, जाति और समाज पीछे नहीं. सभी अपनीअपनी मार्केटिंग में लगे हुए हैं और भोलीभाली भीड़ की मिट्टी में अपने नाम का झंडा गाड़ कर अपनी साख जमाने की कोशिश कर रहे हैं. उसे अपनी राजनीति का शिकार बना रहे हैं.

कभीकभी तो ऐसा महसूस होता है कि यदि ये ‘मेरा धर्म श्रेष्ठ’ का नारा न लगाएं तो जैसे इन का धर्म अभी नष्ट ही हो जाएगा. जो उन्मादी लोग ‘मेरा धर्म श्रेष्ठ’ का नारा लगा रहे हैं और धर्म के नाम पर लोगों को बांट रहे हैं उन्हें धर्म का इस्तेमाल करना पूरापूरा आता है.  जब वोट डालने के लिए लोगों को फुसलाने की बात होती है, तो धर्म ही सब से ज्यादा कारगर साबित होता है. प्रकृति के नियमों का फायदा धर्म के दुकानदार उठा रहे हैं. प्रकृति ने तो सब को आजाद किया है. पशुपक्षी, नदीझरने, पहाड़पत्थर उन का तो कोई धर्म नहीं, कोई समाज नहीं, लाखों करोड़ों सालों से बस अपनाअपना कार्य कर रहे हैं.

नदी कभी नहीं पूछती कि ऐ झरने तू पहले बता कि किस पहाड़ से बह कर आया है वरना मैं तुझे अपने में नहीं समाऊंगी. और वह स्वयं सब झरानों का काफिला ले सागर के हृदय में समा जाती है. पहाड़ से टूटी चट्टान भी लुढ़क कर जहां रुक जाए, बस वही उस का ठिकाना हो जाता है. कोई पहाड़ उसे धकेलता नहीं. हवा अपना रुख मनमुताबिक तय करती है. आसमान, तारे, चांद, सूरज सब ही तो हैं जो हर धर्म, समाज को यथा योग्य कुछ दे रहे हैं. सिर्फ हम मनुष्यों को ही धर्म, समाज, जाति, भाषा की आवश्यकता क्यों है? क्यों हम किसी पंडेपुजारी के बिना अपनी मनपसंद की पूजा नहीं कर सकते? यदि करें तो ये समाज के लोग तिरस्कृत क्यों करने लगते हैं? जबकि वे स्वयं नियम बनाते और स्वयं ही तोड़ते हैं. ये सत्ता पिपासु लोग हैं. उन्हें डर है कि यदि लोग अपनी सुविधानुसार ऐसा करने लगेंगे तो उन की अहमियत कम हो जाएगी.

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