पटरियों पर बिकने वाला खाना शहरों में अगर आधे लोगों को खिलाता हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है. अपने घर से दूर रहने वालों या कुछ अलग खाने वालों के लिए पटरियों पर मिलने वाला खाना ही सब से ज्यादा सुलभ, सस्ता व स्वादिष्ठ होता है. पर ये पटरी दुकानदार शहरों के लिए संकट बन गए हैं और संकरी होती सड़कों पर बोझ हैं, इसलिए हर सरकार इन्हें नियंत्रित करने का असफल प्रयास करती है यानी आखिर हार कर छोड़ देती है. पटरियों पर खाने की दुकानों को ले कर स्ट्रीट वैंडर्स एक्ट में दिल्ली सरकार ने प्रावधान किया है कि वैंडर पटरी पर खाना नहीं पकाएंगे, केवल दिन में दुकान लगाएंगे, बिजली, पानी नहीं लेंगे, आवाज लगा कर ग्राहकों को नहीं बुलाएंगे, ग्राहकों को दुकान के सामने गाड़ी खड़ी नहीं करने देंगे, बायोमीट्रिक रजिस्ट्रेशन कराएंगे, नगर निगम को किराया देंगे, कानून तोड़ने पर जुर्माना वगैरह भरेंगे.

ये सारे नियम ऐसे हैं कि जिन का पालन कराना हो तो कह दो कि पटरी पर दुकान न लगाओ. वैसे होना तो यही चाहिए कि अब पटरियों पर दुकाने लगाने का हक नहीं दिया जा सकता. जैसेजैसे पक्की दुकानों की कीमत बढ़ी है, पटरी भी नगरवासियों के लिए कीमती हो गई है. पटरी अब इसलिए ज्यादा जरूरी हो गई है, क्योंकि गाडि़यां घर या दफ्तर से कई मील दूर खड़ी करनी पड़ सकती हैं और पटरी का इस्तेमाल अनिवार्य हो गया है. यह भी समझ लें कि पटरी कानून बना कर किसी को पटरी पर व्यापार करने की थोड़ी छूट देना भी आम नागरिक का हक छीनना है. पटरी दुकानदार चाहे जितने गरीब हों और चाहे जितनी वे गरीबों की सेवा कर रहे हों, वे आम नागरिक के पटरी के अधिकार को कम नहीं कर सकते. पटरी पर न दुकान लग सकती है, न स्कूटर या साइकिल खड़ी हो सकती है और न ही मकान बनाने का सामान पटका जा सकता है.

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