एक कहावत है - ‘मनुष्य इतिहास से यह सीखता है कि मनुष्य इतिहास से कुछ नहीं सीखता.’ यह कहावत भारत पर पूरी तरह लागू होती है. इतने साल गुजर जाने के बावजूद हम बंगलादेशी घुपैठियों की समस्या को हल नहीं कर पाए हैं और अब म्यांमार से आई रोहिंग्या मुसलिम शरणार्थी समस्या से जूझ रहे हैं. इस पर देश में एकराय नहीं बन पा रही है. देश के सामने एक ज्वलंत सवाल यह है कि रोहिंग्याओं का
क्या करें?
अमेरिकी लेखक सेमुअल हटींगटन ने कहा था, ‘भविष्य में संघर्ष राजनीतिक विचारधाराओं के बीच नहीं, सभ्यताओं या धर्मों के बीच होगा.’ म्यांमार में यही हो रहा है. रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या म्यांमार में बौद्ध और मुसलिमों के बीच चल रहे हिंसात्मक संघर्ष का नतीजा है. मुसलिम म्यांमार में अलपसंख्यक हैं, बौद्ध बहुसंख्यकों के साथ उन की पटरी नहीं बैठती. नतीजतन, रोहिंग्या कट्टरवाद और अलगाववाद के रास्ते पर चल पड़े. रोहिंग्याओं की कहानी विद्वेष और अलगाववाद के खुद ही शिकार होने की कहानी है. इस आतंकवाद और अलगावाद ने रोहिंग्याओं को बहुसंख्यक बौद्धों, म्यांमार सरकार और वहां की सेना के मिलजुले कोप का निशाना बनाया. उन्हें म्यांमार छोड़ कर भागने के लिए मजबूर कर दिया. कोई भी पड़ोसी देश उन्हें शरण देना नहीं चाहता.
म्यांमार की यह कहानी भारत में भी इसलिए गूंज रही है क्योंकि हजारों की संख्या में रोहिंग्याओं के शरणार्थी के रूप में भारत में आने से भारतीय राजनीति में भी यह अहम मुद्दा बन गया है. इस के इर्दगिर्द राजनीति हो रही है. जनमत 2 हिस्सों में बंटता जा रहा है. एक तबका मानता है कि रोहिंग्याओं को मानवीय आधार पर शरण दी जाए जबकि दूसरा तबका कहता है कि रोहिंग्याओं के रिश्ते आतंकी संगठनों से हैं. उन्हें शरण देना देश की सुरक्षा के लिए खतरनाक होगा. ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो मानते हैं कि मानवीयता के नाम पर हर शरणार्थी की मदद कर के देश को धर्मशाला नहीं बनाया जा सकता.