‘‘आज समाज में यह धारणा बहुत गहरे पैठ जमाए है कि सांवली, काली या यों कहें कि गहरे रंग की त्वचा सुंदर नहीं होती. इसी धारणा के कारण लड़कियों को समाज में भेदभाव, दबाव का सामना करना पड़ता है. वैवाहिक विज्ञापनों में भी सांवले रंग को स्वीकार नहीं किया जाता. आज हमारे यहां हजारों मैट्रिमोनियल साइट्स हैं. अखबारों में विज्ञापन छपते हैं. इन सब में अगर आप वैवाहिक विज्ञापन के स्टाइल पर गौर करेंगे तो सब से जरूरी बात जो निकलती है वह है लड़की का गोरा, पतला और लंबा होना...’’
प्रकृति ने हर किसी को एक अलग रंगरूप से नवाजा है. हर किसी के अंदर कुछ खूबियां हैं तो कुछ कमियां. किसी का रंग सांवला है तो किसी का गोरा. दुनिया की कोई क्रीम किसी को गोरा या काला नहीं कर सकती है. यह सब जन्म से होता है. तो फिर उसे ले कर हीनभावना या घमंड क्यों?
दरअसल, हीनभावना या घमंड की वजह हमारा सामाजिक परिवेश है जो सांवले को कमतर और गोरे को श्रेष्ठ और बेहतर मानता है. ऐसा नहीं है कि गोरेपन की सोच केवल भारत में ही है बल्कि पूरी दुनिया में इस की जड़ें गहरी हैं. गोरे होने का मतलब यह नहीं कि आप खूबसूरत ही हैं जबकि बहुत सी सांवली लड़कियां भी बेहद खूबसूरत होती हैं.
गोरेकाले का भेद
दुनिया की अलगअलग जगहों में अलग रंग, प्रजाति और भाषाओं के लोग मौजूद हैं. सैकड़ों साल पहले भारत के मूल निवासी द्रविड़ प्रजाति के लोग थे. उन की त्वचा का रंग सांवला और काला था. जब गोरे अंगरेज हमारे देश में आए तो वे हमारे राजा बन बैठे और हम उन की प्रजा बनने को मजबूर हो गए. अंगरेजों की त्वचा गोरी थी और हम भारतीय सांवले या काले थे. ऐसे में उसी समय से हम भारतीयों के मन में यह बात बैठ गई कि जो गोरा है वह शासक है और जो काला है वह उस का सेवक है.