एक भारतीय के लिए यह कल्पना भी सिहरा देने वाली है कि एक दिन गंगायमुना जैसी नदियां नहीं रहेंगी. गंगा की विदाई की बात तो आम आदमी सोच नहीं पाता, लेकिन धीरेधीरे यह आशंका गहरा रही है. गंगायमुना दुनिया की उन नदियों में से हैं जिन के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. साल 2014 में पर्यावरण संरक्षण से संबद्घ संस्था डब्लूडब्लूएफ ने इस खतरनाक तथ्य का खुलासा किया था. उस के मुताबिक गंगायमुना के अलावा सिंधु, नील और यांग्त्सी भी संकटग्रस्त हैं. डब्लूडब्लूएफ का कहना है कि निरंतर बढ़ते प्रदूषण, पानी के अत्यधिक दोहन, सहायक नदियों के सूखने, बड़े बांधों के निर्माण और वातावरण में परिवर्तन से इन बड़ी नदियों के लुप्त होने का संकट पैदा हो गया है.
भारत में आज सब से अहम चर्चा गंगा को ले कर है. नरेंद्र मोदी सरकार ने गंगा को पुनर्जीवन देने का ऐलान अपने घोषणापत्र में किया था और अपने वादे के मुताबिक, उमा भारती को गंगा सफाई का एक पृथक मंत्रालय दे कर इस बारे में अपनी सदिच्छा भी दर्शा दी थी. पर अब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने हरिद्वार निवासी एक मुसलिम व्यक्ति मोहम्मद सलीम की जनहित याचिका पर अभूतपूर्व फैसला सुनाते हुए इन दोनों नदियों को जीवित इंसान जैसे अधिकार देने की बात कही है.
अदालत के इस फैसले से गंगायमुना को देश के संवैधानिक नागरिक जैसे अधिकार हासिल हो गए हैं, जिन के तहत इन के खिलाफ और इन की ओर से मुकदमे सिविल कोर्ट तथा अन्य अदालतों में दाखिल किए जा सकेंगे. इन नदियों में कूड़ा फेंकने, पानी कम होने, अतिक्रमण की स्थिति में मुकदमा हो सकता है और गंगायमुना की ओर से मुख्य सचिव, महाधिवक्ता, महानिदेशक आदि मुकदमा दायर कर सकेंगे.
यही नहीं, यदि इन नदियों में बाढ़ आदि के कारण किसी व्यक्ति के खेतमकान बह जाते हैं, तो वह व्यक्ति इन के खिलाफ भी अदालत में मुकदमा दायर कर हर्जाना की मांग कर सकता है, जिस की भरपाई संबंधित राज्य सरकार को करनी पड़ सकती है.
इस ताजा फैसले के पीछे न्यूजीलैंड में बांगक्यू नामक नदी को जीवित व्यक्ति की तरह हाल में अधिकार देने का उदाहरण है. बहरहाल, इस फैसले से यह उम्मीद जगी है कि अब सरकार और जनता गंगायमुना व अन्य नदियों की साफसफाई व संरक्षण के प्रति सजग होगी और इस के उपाय करेगी कि इन के जीवन पर कोई संकट न आए.
जहरीला प्रदूषण
मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होते ही देश में गंगायमुना समेत देश की धर्म की दुकान में शामिल प्रमुख नदियों की साफसफाई की योजना पर सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में कामकाज शुरू हो गया था. जैसे, एक योजना जहाजरानी मंत्रालय ने बनाई थी जिस में गंगा, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी और महानदी को जोड़ कर जल परिवहन ग्रिड तैयार किया जा रहा है. करीब 25 हजार करोड़ रुपए की इस प्रस्तावित परियोजना में इन प्रमुख नदियों में जलप्रवाह सुनिश्चित करने के साथसाथ इन का उपयोग ऐसे जलमार्ग के रूप में किया जाना है जिस से सस्ती दरों पर माल ढुलाई की जाए.
एक अन्य योजना पर्यटन मंत्रालय की है जिस की पहल पर देश की कुछ शीर्ष कंपनियां, खासतौर पर बनारस के गंगा घाटों का विकास और रखरखाव करने के लिए, सामने आई हैं. खुद पर्यटन मंत्रालय 18 करोड़ रुपए के खर्च से इन घाटों का विकास कर रहा है. पर नदियों की सब से अहम समस्याएं उन के दोहन, खनन और उन में डाले जा रहे जहरीले प्रदूषण की हैं.
सब से पहले बात गंगा की है. गंगा हमारे लिए सिर्फ एक नदी नहीं है, वह धर्म की कमाई का बड़ा साधन भी है. प्रवाह समाप्त होने और प्रदूषण बढ़ने पर उस के खत्म होने का अर्थ होगा एक दुकानदारी का लोप हो जाना. असल में अपना जीवन संवारते हुए हम ने नदियों की जिंदगी छीन ली है. गंगा और इस की सहायक नदियों से पानी के अंधाधुंध दोहन ने हालत बिगाड़ दी है. देश में गंगा की सभी सहायक नदियों का पानी बांधों द्वारा नियंत्रित है, जो 60 फीसदी प्रवाह को सिंचाई के लिए मोड़ देते हैं.
औद्योगिक विकास के जोर पकड़ने के साथ ही गंगा मैली होती जा रही है. यह सिलसिला प्रदूषण रोकने की तमाम सरकारी कवायदों के बावजूद रुकने का नाम नहीं ले रहा. बीते अरसे में सुप्रीम कोर्ट गंगा ऐक्शन प्लान की राशि के दुरुपयोग पर गहरी नाराजगी जता चुका है. एक मौके पर अदालत ने केंद्र सरकार से पूछा था कि प्रदूषण दूर करने के नाम पर करीब 900 करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा में औद्योगिक प्रदूषण क्यों बदस्तूर जारी है? सरकार बगलें झांकने के अलावा और कुछ नहीं कर सकी.
सच तो यह कि इतना कुछ होने के बाद भी सिवा घाट बनाने के गंगा को स्वच्छ बनाने का अभियान सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं आया.
आश्चर्य तो यह होता है कि नदियों को पूजने वाले इस देश के अंधभक्त भी नदियों को स्वच्छ बनाने के लिए सामने नहीं आते, कोई आवाज नहीं उठाते. दुनिया के कई देशों में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब सरकार और समाज ने मिल कर नदियों को पुनर्जीवन दिया, जबकि वहां नदियों का कोई धार्मिक महत्व नहीं है.
बहरहाल, अब एक उम्मीद अदालत के फैसलों और उन पर सरकारों के रुख से जगी है. सरकारें अपने स्तर पर नदियों की साफसफाई के लिए जो कुछ करेंगी, उन की सार्थकता इस से तय होगी कि उन्होंने नदियों की किन दिक्कतों का नोटिस लिया है. नदियों को नया जीवन देने के लिए पहले उन की समस्याओं को जानना जरूरी है. मिसाल के तौर पर गंगोत्री से निकल कर बंगाल की खाड़ी में समाने से पहले 2,525 किलोमीटर का लंबा सफर तय करने वाली गंगा कई तरह के प्रदूषण झेल रही है और खनन की गतिविधियों से उस का स्वरूप बिगड़ रहा है.
पिछली सरकारों के कार्यकाल में गंगा का अस्तित्व बचाने के लिए गंगा ऐक्शन प्लान के तहत 200 अरब रुपए तक खर्च हो गए, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में यह सारा खर्च जैसे गटर में समा गया क्योंकि गंगा की हालत जस की तस रही.
बैक्टीरिया का हमला
गंगा का जल आचमन लायक क्यों नहीं है और इस में प्रदूषण की स्थिति क्या है, इस का अंदाजा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यानी सीपीसीबी के आंकड़ों से हो जाता है. सीपीसीबी के मुताबिक, हरिद्वार से ले कर कानपुर, इलाहाबाद और बनारस तक इस में कौलीफौर्म बैक्टीरिया की मात्रा काफी ज्यादा है जो इंसानों को विभिन्न रोगों की गिरफ्त में ला सकता है. आमतौर पर गंगा जैसी नदी के प्रति सौ मिलीलिटर जल में कौलीफौर्म बैक्टीरिया की तादाद 5,000 से नीचे होनी चाहिए. पर हरिद्वार में यह मात्रा प्रति सौ मिलीलिटर जल में 50,917, कानपुर में 1,51,333 और बनारस में 58,000 है.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक, बनारस में कौलीफौर्म बैक्टीरिया की संख्या सुरक्षित मात्रा से 11.6 गुना ज्यादा है. गंगा में बैक्टीरिया की इतनी अधिक मौजूदगी की वजह है उस में मिलने वाला बिना उपचारित किए गए सीवेज का गंदा पानी, जो इस के तट पर मौजूद शहरों से निकलता है.
तत्कालीन पर्यावरण मंत्री वीरप्पा मोइली ने राज्यसभा में जानकारी दी थी कि गंगा के किनारे मौजूद शहरों से रोजाना 2.7 अरब लिटर सीवेज का गंदा और विषैला पानी निकलता है. हालांकि इन सभी शहरों में सीवेज के पानी को साफ करने के लिए ट्रीटमैंट प्लांट लगे हुए हैं, पर उन की क्षमता काफी कम है. हकीकत यह है कि इन शहरों में मौजूद ट्रीटमैंट प्लांट सिर्फ 1.2 अरब लिटर यानी 55 फीसदी सीवेज की सफाई कर पाते हैं. इस का साफ मतलब यह है कि शेष 45 प्रतिशत सीवेज गंगा में यों ही मिलने दिया जाता है.
यह तो गंगा का हाल है. देश की दूसरी नदियां भी, सीवेज का गंदा पानी बिना ट्रीटमैंट के मिलने के कारण भयानक प्रदूषण झेल रही हैं. उल्लेखनीय है कि देश के विभिन्न शहरोंकसबों से रोजाना 38.2 अरब लिटर सीवेज गंदा पानी निकलता है जिस में से केवल 31 प्रतिशत यानी 11.8 अरब लिटर सीवेज की साफसफाई का प्रबंध है. चूंकि सीवेज की सफाई का पूरा इंतजाम नहीं है, इसलिए ज्यादातर सीवेज बिना ट्रीटमैंट के ही नदियों में मिला दिया जाता है.
कई तरह के प्रदूषण
नदियों में पैदा होने वाले प्रदूषण की एकमात्र वजह सीवेज का गंदा पानी नहीं है. नदियों को 3 तरह के मुख्य प्रदूषणों का सामना करना पड़ रहा है. निसंदेह इन में पहला प्रदूषण नालों के नदियों में मिलने वाले सीवेज और गंदे पानी के कारण पैदा होता है. लेकिन इस से ज्यादा बड़ा खतरा नदी किनारे मौजूद कारखानों से निकलने वाले औद्योगिक कचरे व विषैले रसायनों का है. साथ में, नदियों के समीप स्थित खेतों में इस्तेमाल होने वाली रासायनिक खाद और कीटनाशकों ने भी एक बड़ा खतरा पैदा किया है, जिन के अवशेष रिस कर नदियों में मिल जाते हैं और उस के पानी को जहरीला बना देते हैं.
इन प्रदूषणों की स्थिति क्या है, इस का एक आकलन गंगा के किनारे स्थित शहरों से मिलने वाले प्रदूषण के जरिए हो सकता है. गंगोत्री से निकलने के बाद हरिद्वार आतेआते गंगा में उत्तराखंड राज्य की 12 नगरपालिकाओं के अंतर्गत पड़ने वाले 89 नाले अपना सारा सीवेज इस नदी में उड़ेल देते हैं.
हरिद्वार में सीवेज से पैदा प्रदूषण से निबटने के लिए 3 ट्रीटमैंट प्लांट हैं, लेकिन वे इस बढ़ते शहर के बढ़ते सीवेज को संभालने में नाकाम साबित हो रहे हैं. हरिद्वार के बाद कानपुर में गंगा की स्थिति सब से ज्यादा दयनीय हो जाती है, क्योंकि वहां बेशुमार औद्योगिक कचरा इस में प्रवाहित किया जाता है. कानपुर में तमाम फैक्टरियां हैं और इस के जाजमऊ नामक इलाके में 450 चमड़ा शोधन इकाइयां हैं. इन से निकलने वाला औद्योगिक कचरा गंगाजल को जहरीला बनाने के लिए पर्याप्त है.
उल्लेखनीय है कि पर्यावरण विशेषज्ञों और विश्व बैंक की एक टीम ने कानपुर में पैदा होने वाले प्रदूषण से गंगा को बचाने का एकमात्र उपाय यह पाया है कि यहां के सारे नालों को गंगा से दूर ले जाया जाए और उन का गंदा पानी किसी भी सूरत में इस में न मिलने पाए.
कानपुर के बाद इलाहाबाद में वैसे तो औद्योगिक कचरे का कोई बड़ा खतरा नहीं है, लेकिन इस शहर के आधा दर्जन बड़े नालों का पानी सीधे गंगा में गिरता है. इसी तरह बनारस में भी जो सीवेज रोजाना पैदा होता है, उस में से एकतिहाई से ज्यादा गंगा में बिना ट्रीटमैंट के मिल रहा है. इस शहर के 33 नालों का गंदा पानी गंगा में न मिले, इसे रोकने का कोई ठोस उपाय नहीं किया गया है.
साफसफाई की मुश्किलें
गंगायमुना के सामने दिक्कतें लंबे अरसे से मौजूद रही हैं. इन में हाल तक कोई तबदीली भी नहीं आई है, सिवा इस के कि केंद्र सरकार ने गंगा को साफ करने की ठानी है. लेकिन यहां कुछ चीजों को और ध्यान में रखना होगा. जैसे खासतौर पर गंगा नदी की लंबाई ढाई हजार किलोमीटर लंबी गंगा के किनारे बसे शहरोंकसबों में 5 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं. उन की रोजीरोजगार के जो प्रबंध खेतों और कलकारखानों के रूप में वहां मौजूद हैं, उन्हीं से सारा प्रदूषण गंगा में मिलता है. इस के अलावा तमाम तरह के अंधविश्वासों के चलते गंगा में लाशों से ले कर पूजाहवन सामग्री, तसवीरेंमूर्तियां आदि भी भारी मात्रा में प्रवाहित की जाती हैं. इन में से भी बहुत सी ठोस सामग्री ऐसी होती है जो गल नहीं पाती है और वह प्रदूषण में इजाफा ही करती है. पंडे इस प्रदूषण की बात भी नहीं करते. अगर वे प्रदूषण की बात करें तो जजमान स्नान करना ही बंद कर देंगे. इस से उन की कमाई कम हो जाएगी. अगर विदेशी नदियों की साफसफाई के उदाहरण इस संदर्भ में लिए जाएं तो गंगा या यमुना को प्रदूषणमुक्त करने के अभियानों पर होने वाले खर्च का अंदाजा लग सकता है. जैसे लंदन की 346 किलोमीटर लंबी टेम्स नदी की साफसफाई इसलिए हो पाई क्योंकि उस के किनारे सिर्फ 14 लाख लोग रहते हैं. टेम्स की सफाई पर सिर्फ 5 अरब रुपए के बराबर खर्च आया, जबकि गंगा पर अभी तक 200 अरब रुपए खर्च हो चुके हैं.
इसी तरह यूरोप की 2,860 किलोमीटर लंबी नदी दान्युब 125 अरब रुपए के खर्च से 15 सालों में इसलिए साफ की जा सकी क्योंकि उस के किनारे सिर्फ 86 लाख लोग रहते हैं. जरमनी की 1,233 किलोमीटर लंबी राइन नदी पर पिछले 50 सालों में सफाई पर जरूर 1,940 अरब रुपए खर्च हुए हैं पर इस नदी के किनारे गंगा के मुकाबले दहाई 50 (लाख) लोग रहते हैं.
यूरोपीय देशों में लोग अपनी आजीविका के लिए नदियों पर इतने ज्यादा निर्भर नहीं हैं कि उन्हें गंगायमुना जैसा दोहन करना पड़े. यहां तो गंगा में उस के स्रोत गोमुख से ही प्रदूषण शुरू हो जाता है. वहां पर हजारों धार्मिक पर्यटकों की आवाजाही के कारण पौलिथीन के थैले और दूसरे तरह का कचरा खूब फेंका जाता है. इसी तरह नदी में वह मलमूत्र भी बहाया जाता है जो यहां के होटलों व तीर्थयात्रियों तथा पर्यटकों की आवाजाही के कारण होता है.
सब निभाएं जिम्मेदारी
साफ है कि अब यदि भाजपा सरकार गंगा और दूसरी नदियों की सफाई का जिम्मा अपने ऊपर लेती है, तो और भी ज्यादा रकम खर्च हो सकती है. यह भारीभरकम रकम कहां से आएगी, इस का कुछ हिसाबकिताब सरकार को जरूर बिठाना पड़ेगा. इतना तो तय है कि गंगा की स्वच्छता का कोईर् भी अभियान इस के किनारे रहने वाले लोगों को उस से जोड़े बिना मुमकिन नहीं है.यह काम न तो प्रचार अभियान और शिक्षण से होगा और न ही बड़े संगठनों को भारीभरकम बजट मुहैया कराने से. यह तभी मुमकिन है जब लोग गंगा की महत्ता को समझते हुए इसे स्वच्छ रखने वाले दैनिक अनुशासन से जुड़ें और इस की साफसफाई की जिम्मेदारी में अपना हिस्सा भी तय करें. अब यह समझ लेना होगा कि जिन नदियों को हम देवी का दरजा देते रहे हैं और नदियों की उत्पत्ति को भगवान से जोड़ कर देखते रहे हैं, उन नदियों का प्रदूषण हमारे लिए भी किसी प्रकोप से कम नहीं है. जिस रोज आम जनता समझ जाएगी कि उस का वजूद नदियों की वजह से ही है, नदियों की सारसंभाल के काम में आसानी होने लगेगी और उन के संरक्षण के सरकारी व गैरसरकारी आयोजन सार्थक साबित होने लगेंगे.
यमुना की दुर्दशा
पिछली सरकारों ने यमुना को साफ रखने के अपने वादे को निभाने में कोताही की और महज कोरे आश्वासन दिए. यही वजह है कि अतीत में सुप्रीम कोर्ट दिल्ली सरकार को इस के लिए फटकार लगा चुका है. जापान से 2 बार अनुदान लेने वाली और देश की सर्वाधिक प्रदूषित नदी यमुना की सफाई के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपए गटर में बहा
देने वाली सरकार का रवैया तो चिंताजनक है ही, साथ में, सवाल यह भी है कि सीएसई जैसे गैरसरकारी पर्यावरणवादी संगठन की सक्रियता के बावजूद हमारे समाज में इस की स्वच्छता को ले कर कोई चेतना नहीं जगी. अन्यथा यमुना का यह हाल न होता कि दिल्ली में वह सिर्फ बदबू से भभकता हुआ गंदा नाला ही लगती. यमुना देश की राजधानी दिल्ली में ही सब से ज्यादा क्यों प्रदूषित है और इस का प्रदूषण क्यों नहीं खत्म हो पा रहा है, इस प्रसंग में कुछ मूलभूत बातें जाननी जरूरी हैं. दिल्ली में पल्ला नामक स्थान से प्रवेश करने और ओखला से बाहर निकलने वाली इस नदी के 22 किलोमीटर का हिस्सा ही सर्वाधिक प्रदूषित है.
प्रदूषण इतना ज्यादा है कि इस का जल आचमन लायक तो दूर, सिंचाई और टौयलेट फ्लश करने लायक तक नहीं है. पर इस के बावजूद, इस नदी के किनारों पर धड़ल्ले से सब्जियां उगाई और दिल्ली के बाशिंदों को तमाम चेतावनियों के बाद भी खिलाईर् जा रही हैं.
धर्मभीरू समाज इस के किनारे पर छठ पूजता है, गणेश व दुर्गा की मूर्तियों का विसर्जन करता है. नदी का जल गुणवत्ता के लिहाज से 3 पैमानों पर मापा जाता है. पहला, बायोकैमिकल औक्सीजन डिमांड यानी बीओडी, दूसरा कैमिकल औक्सीजन डिमांड यानी सीओडी और तीसरा, पानी के एक यूनिट में मौजूद धूलकणों की मात्रा.
ओडी का ज्यादा होना और सीओडी का अत्यधिक कम होना पानी की बेहतर गुणवत्ता का प्रतीक है, पर यमुना के मामले में ये मापदंड ठीक उलट साबित होते हैं. यानी औक्सीजन इस में नाममात्र को नहीं, जिस से इस में जलीय जीवजंतु जीवित रहते. खतरनाक रसायन इस में हद से कहीं ज्यादा हैं, इसलिए जीवजंतु और पादप प्रजातियां तो क्या, इस की चपेट में इंसान के आने पर मौत का खतरा है.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दिसंबर 1999 में दिल्ली में यमुना के जो सैंपल लिए थे, उन के परीक्षण के नतीजों के मुताबिक, इस के जल के एक मिलीलिटर पानी में 66 बीओडी कण और 239 सीओडी कण पाए गए. ये दोनों आंकड़े उच्चतम प्रदूषण के नमूने थे. यह स्थिति 15 वर्षों बाद अभी भी बदली नहीं हैं, बल्कि यमुना ऐक्शन प्लान पर कार्यवाही होने के बाद तो और बदतर हुई है.
नदियों के खिलाफ है धर्मभीरू समाज
कहने को तो अमेरिकी और यूरोपीय देश दुनिया के सब से प्रदूषक देश हैं, लेकिन वे देश अपनी नदियों और जल संसाधनों की न सिर्फ रक्षा करते हैं, बल्कि उन्हें हर कीमत पर स्वच्छ रखने का जतन भी करते हैं. अमेरिका की हडसन, ब्रिटेन की टेम्स या जरमनी की राइन में वैसा विषैला प्रदूषण बिलकुल नहीं मिलेगा, जैसा प्रदूषण ये देश अपने वायुमंडल में घोलते हैं. पर यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आस्थाओं और नदीपूजकों के हमारे भारत देश में गंगायमुना से ले कर हर वह नदी इस कदर प्रदूषित है कि उस के जल के आचमन लायक भी नहीं रह जाने की खबर हर चौथे दिन अखबारों में देखने को मिलती है.
जिस देश में नदी में प्लास्टिक थैलियां और कचरा फेंकने की आम आदत के चलते सरकार को पुलों पर कचरा रोकने वाली लोहे की जालियां लगानी पड़ें, क्या हम उस देश की सभ्यता को नदीमूलक और प्रकृतिप्रेमी मान सकते हैं?
कहने को तो हमारा देश अंधविश्वासों और पाखंडों का देश है. साल में हर दिन कोई त्योहार इन पाखंडों के प्रदर्शन का मौका देता है और उत्सवप्रेमी लोग भांतिभांति के तौरतरीकों से अपनी आस्थाएं जताते हैं. इधर कुछ सालों से नदियों में मूर्तियों के विसर्जन का सिलसिला खूब बढ़ा है. बंगाल की दुर्गापूजा और महाराष्ट्र का गणेश उत्सव अब किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है, बल्कि दिल्ली से ले कर देहरादून और पोरबंदर से ले कर अगरतला तक ऐसे त्योहार धर्मभीरू समाज की उत्सवी अनिवार्यता के अंग हैं
जिस तरह से आस्तिक समाज ने उत्सवों को और ज्यादा धूमधाम से मनाने के नाम पर भरपूर कुरीतियों को अपनाया है, उस से पर्यावरण प्रदूषण का संकट और गहराया है. आंकड़ों के हिसाब से हर साल अकेले दिल्ली में ही 500 से 700 मूर्तियों का यमुना में विसर्जन किया जाता है. संख्या और आकार में हर साल पहले से बड़ी होती ये मूर्तियां प्लास्टर औफ पेरिस, चूने और सीमेंट के अलावा अनेक जहरीले तत्त्वों से बनती हैं और इन की निर्माणसामग्री की कोई वैज्ञानिक जांच नहीं होती.
मूर्तियों की चमक और रंगत बढ़ाने के लिए पोते जाने वाले रंग पारा, शीशा और कैडमियम आदि घातक रसायनों के मिश्रण से तैयार होते हैं, जो नदीजल को मानव व जलजीवों के लिए अत्यंत विषैला बना देते हैं.