सरकार चिकित्सा को सुलभ व सस्ता करने के लिए कानून बनाने जा रही है कि डाक्टर मरीजों को नुसखा या प्रिस्क्रिप्शन देते समय दवाओं के ब्रैंड नाम न लिख कर कैमिकल नाम लिखें ताकि मरीज वे दवाएं किसी भी कंपनी की खरीद सकें. ब्रैंडेड दवाइयां देने के चलन के कारण मैडिकल उद्योग में बहुत बेईमानी फैली हुई है और सरकार की सोच है कि इस से यह रुकेगी और इलाज सस्ता हो जाएगा.
आरोप है कि ब्रैंडेड दवाइयां बहुत महंगी होती हैं, क्योंकि दवा कंपनियां डाक्टरों को घूस दे कर उन्हें महंगी ब्रैंडेड दवाइयां लिखने को प्रेरित करती हैं. इस के लिए डाक्टरों को महंगे उपहार भी दिए जाते हैं, नकद कमीशन भी दिया जाता है और निशुल्क विदेश यात्राएं भी कराई जाती हैं.
इंडियन जर्नल औफ फार्माकोलौजी की एक रिपोर्ट के अनुसार, ऐंटी ऐलर्जी की दवा एलेरिड टैबलेट की 10 गोलियों का पत्ता 35 में बिकता है, तो अच्छी कंपनी के जैनेरिक नाम से यह 2.50 में थोक बाजार में मिल सकता है. महंगी दवाओं में यह अंतर और ज्यादा है और चाहे नए उपचार आ गए हों, देश की गरीब जनता को अभी भी बेइलाज मरना पड़ता है.
पर इस का हल फार्मा कंपनियों को निचोड़ना नहीं है. फार्मा कंपनियां बहुत ही प्रतियोगी वातावरण में काम करती हैं और एक ब्रैंडेड दवा के कई पर्याय मिलते हैं. कई बार कई कंपनियां मिल कर कार्टेल बना लेती हैं पर इस के बावजूद जमीनी हकीकत में उन्हें डिस्काउंट, उधारी, उपहारों पर निर्भर रहना ही पड़ता है. मोटा मुनाफा वे जरूर कमा रही हैं पर उस के पीछे दवा उद्योग का चरित्र है, लालच ही नहीं.