पिछले दिनों सामाचारपत्र में एक खबर छपी थी कि एक महाशय अपने पालतू तोते की मौत पर इतने दुखी हुए कि उन्होंने कफन मंगा कर तोते का अंतिम संस्कार किया. यही नहीं इस के बाद तोते की आत्मा की शांति के लिए उस की 13वीं पर सभी पड़ोसियों व रिश्तेदारों को बुला कर हवन और ब्रम्हभोज का आयोजन किया.
इस खबर को सुन कर एक बार को भी यह नहीं लगता कि इस सारे आयोजन में उस तोते के मालिक का अपने तोते से इतना प्रेम रहा होगा कि उस ने यह सब कर डाला. इस सारे ढकोसले से तो मात्र एक बात ही सामने आ रही है कि धर्म के ठेकेदारों को खुश करने और खुद को समाज में धार्मिक प्रवृत्ति का दिखाने के लिए तोते के अंतिम संस्कार और 13वीं का ढकोसला किया गया. इस बारे में बहुत से लोगों के विचार लिए गए.
ऐसे ढकोसले नई बात नहीं
कई बार पक्षियों और जानवरों के लिए भी लोग ऐसे ढकोसले करते हैं. बंदरों का भी ऐसे ही विधिवत मृत्यु संस्कार किया जाता है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि कुत्ते, भैंस आदि के साथ ऐसा क्यों नहीं किया जाता? क्योंकि वे धर्म से नहीं जुड़े होते?
इस बारे में पद्मा अग्रवाल बताती हैं, ‘‘बंदर के मरने पर उस की शवयात्रा को गाजेबाजे के साथ निकालने का प्रचलन है. इस पूरे आयोजन में वही लड़के बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं जो बेकार और निकम्मे होते हैं, क्योंकि बंदर की शवयात्रा के बहाने जो चंदा इकट्ठा होता है उस से उन के खुद के खानेपीने का आसानी से इंतजाम हो जाता है और समाज में उन पर धार्मिक होने का ठप्पा भी आसानी से लग जाता है.