लोकप्रिय क्रिकेटर महेंद्र सिंह धौनी के जीवन पर बनी फिल्म ‘महेंद्र सिंह धौनी-द अनटोल्ड स्टोरी’ के एक दृश्य में महेंद्र सिंह धौनी को अपने दोस्तों से एक मैच का विश्लेषण करते हुए बताया गया है कि कूच बिहार क्रिकेट ट्रौफी टूर्नामैंट में पंजाब की टीम से बिहार की टीम क्यों हारी थी.
यह मैच 16 दिसंबर, 1999 को हुआ था. उस समय अंडर-19 की राष्ट्रीय टीम के खिलाडि़यों का चयन होना था. पंजाब की तरफ से युवराज सिंह और बिहार से महेंद्र सिंह धौनी का चयन तय माना जा रहा था. लेकिन बिहार की टीम के हार जाने की वजह से धौनी का चयन नहीं हो पाया था.
अपनी टीम की हार की वजह गिनाते किशोर महेंद्र सिंह धौनी दोस्तों को फ्लैशबैक में जाते बता रहा है कि दरअसल, हार तो तभी गए थे जब मैच के पहले ही दिन स्टेडियम से गुजरते युवराज सिंह के सामने हमारा आत्मविश्वास लड़खड़ा गया था. इस दृश्य में दिखाया गया है कि पंजाब का यह धुरंधर, उभरता बल्लेबाज कानों में ईयरफोन लगाए हाथ से ट्रौलीबैग घसीटते बड़ी बेफिक्री व आत्मविश्वास से जमीन को रौंदते हुए जा रहा है और बिहार के खिलाड़ी उस की इस अदा को भौचक देख रहे हैं.
फिल्म बनी थी महेंद्र सिंह धौनी की जिंदगी पर, लेकिन एक दृश्य में ही सही, कैमरे का फोकस युवराज सिंह पर करना अगर निर्देशक की मजबूरी हो गई थी तो बिलाशक इस की वजह युवराज सिंह का वह गजब का आत्मविश्वास व दृढ़ इच्छाशक्ति थी जो आंकड़ों और मैदान से परे उन की व्यक्तिगत जिंदगी में भी दिखी जब वे कैंसर का शिकार हो गए थे.
युवराज के हिम्मती हौसले
मैदान पर कीर्तिमान गढ़ते रहने वाले युवराज सिंह को 2012 की शुरुआत में कैंसर ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था. ठीक इस के पहले 2011 में भारत को क्रिकेट वर्ल्डकप जिताने में भी उन की भूमिका अहम रही थी.
फरवरी 2012 में जैसे ही यह खबर आम हुई कि युवराज सिंह के फेफड़े में ट्यूमर है तो उन के प्रशंसकों ने उन के मैदान तो मैदान, जिंदगी के मैदान में भी बने रहने पर शंकाएं व्यक्त करनी शुरू कर दी थीं. इस की वजह तय है कैंसर के प्रति पूर्वाग्रह और इसे असाध्य बीमारी मानना, जबकि ऐसा है नहीं.
युवराज सिंह के फिजियो डाक्टर जतिन चौधरी ने फरवरी 2012 में ही युवराज सिंह के बारे में उड़ रही अफवाहों को विराम देते स्पष्ट कर दिया था कि उन्हें असामान्य और कैंसर ट्यूमर है. अब यह फैसला डाक्टरों को करना है कि वे कीमोथेरैपी कराएं या फिर दवाइयां दें. ट्यूमर का हिस्सा युवराज सिंह के दिल की धमनी के ऊपर था जिस के फटने की आशंका से डाक्टर इनकार नहीं कर रहे थे.
देर न करते हुए युवराज सिंह बोस्टन के कैंसर अनुसंधान केंद्र जा पहुंचे जहां उन्हें कीमोथेरैपी दी गई. बहुत जल्द युवराज सिंह ठीक हो कर भारत आए और क्रिकेट के मैदान में भी दमखम दिखाते दिखे तो कैंसर से डरने वालों को सुखद आश्चर्य हुआ था कि अरे, यह तो ठीक हो जाता है.
युवराज सिंह के ठीक होने में यानी कैंसर को हराने में इलाज के अलावा उन का वह आत्मविश्वास अहम था जिस का जिक्र 1999 में बिहार कूच ट्रौफी के दौरान महेंद्र सिंह धौनी ने किया था. कैंसर से अपने संघर्ष की दास्तां बयां करती किताब ‘द टैस्ट औफ माइ लाइफ’ में युवराज ने लिखा है, ‘‘जब आप बीमार होते हैं, जब आप पूरी तरह निराश होने लगते हैं तो कुछ सवाल एक भयावह सपने की तरह बारबार आप को सता सकते हैं लेकिन आप को सीना ठोक कर खड़ा होना चाहिए और उन मुश्किल सवालों का सामना करना चाहिए.’’
मनीषा की जिंदादिली
‘सौदागर’ फिल्म से फिल्म इंडस्ट्री में दाखिल हुईं अभिनेत्री मनीषा कोइराला ने भी कैंसर को हंसतेहंसते हराया. कई फिल्मों में बोल्ड सीन देने वाली मनीषा कैंसर का पता चलने के बाद भी बोल्ड रहीं. उन्हें ओवेरियन कैंसर था. यह इत्तफाक की बात थी कि मनीषा कोइराला के कैंसर का निदान भी 2012 में हुआ थ
मनीषा कोइराला की सर्जरी न्यूयौर्क में हुई थी. ठीक होने के बाद उन्होंने कहा था, ‘‘कैंसर के आगे अगर मैं घुटने टेक देती तो हार जाती पर मैं ने कैंसर का डट कर मुकाबला किया और मैं जीत गई.’’
अब कैंसर की ब्रैंड एंबैसेडर बन कर जागरूकता फैला रहीं मनीषा सामान्य जीवन जी रही हैं. मनीषा की तरह अभिनेत्री लीजा रे भी स्तन कैंसर की शिकार हुईं. कई सालों के इलाज के बाद उन्होंने हौलीवुड में अपने अभिनय की नई पारी शुरू की. और आज वहां की एक लोकप्रिय अभिनेत्री हैं लीजा.
शेफाली का आत्मविश्वास
जरूरी नहीं है कि कैंसर सैलिब्रिटीज का ही ठीक हो और उस के लिए महंगा इलाज कराने को बोस्टन या न्यूयौर्क जाना पड़े. इलाज कहीं भी हो, जरूरी यह है कि मरीज हौसला और हिम्मत बनाए रखें. लाखों मरीजों की तरह भोपाल की शेफाली चक्रवर्ती और लखनऊ की नीलम वैश्य सिंह के उदाहरण आश्वस्त करते हैं कि कैंसर से जीतना अब नामुमकिन नहीं रहा.
शेफाली के पति अमित चक्रवर्ती भोपाल स्थित बीएचईएल कंपनी में काम करते हैं. इस दंपती के 2 बच्चे हैं. बेटी 12 साल की और बेटा 8 साल का है. चक्रवर्ती दंपती की जिंदगी में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि अब से कोई 4 साल पहले पता चला कि शेफाली को जीभ का कैंसर है.
शेफाली बताती हैं कि जिस दिन बायोप्सी की रिपोर्ट आई थी, अमित ने यह नहीं कहा कि तुम्हें कैंसर है, बल्कि यह कहा कि हमें एक लड़ाई लड़नी है और किसी भी हालत में जीतना है.
शेफाली सकते में थी कि कैसे एक झटके में परिवार की खुशियों को ग्रहण लग गया था. डाक्टरों से मिलीं तो पता चला कि जीभ का औपरेशन होगा और मुमकिन है इस से उन की आवाज भी जाती रहे
यानी वे कभी बोल ही न पाएं. मुंबई के टाटा मैमोरियल में शेफाली का इलाज व औपरेशन हुआ और सफल भी रहा. शेफाली ने इस दौरान हिम्मत नहीं हारी. पति और नातेरिश्तेदारों ने भी पूरा सहयेग दिया जिस के चलते एक दुर्गम रास्ते से हो कर वे मंजिल तक आ पाईं. अब शेफाली पूरी तरह स्वस्थ व सामान्य हैं. कैंसर से जंग उन्होंने जीत ली है तो इस की एक बड़ी वजह वही आत्मविश्वास है.
डर कर जीना नहीं
कैंसर का पता शुरुआती दौर में जांच रिपोर्ट में आसानी से नहीं आता है. लखनऊ की रहने वाले नीलम वैश्य सिंह बहुत ही फिट व जागरूक महिला हैं. जब उन का वजन घटना शुरू हुआ और बौडी स्टैमिना कम होने लगा तो वे अपने फैमिली डाक्टर के पास गईं. कुछ समय पहले वे मैमोग्राफी करा चुकी थीं. उस में कोई जानकारी नहीं मिली थी. डाक्टर की सलाह पर दोबारा मैमोग्राफी टैस्ट कराया. इस में भी सही जानकारी नहीं मिल सकी. मैमोग्राफी के बाद अल्ट्रासाउंड यूएसजी कराया. इस में कुछ संकेत मिले. जिस की पुष्टि के लिए दिल्ली जा कर एफएनसी कराया. एफएनसी बहुत पीड़ादायक टैस्ट था. इस टैस्ट के बाद ही ब्रैस्ट कैंसर का पता चला. नीलम के लिए वे पल बहुत संघर्ष वाले थे. परिवार और बेटी को ले कर तमाम तरह की चिंताएं होने लगीं. नीलम के लिए अच्छा यह था कि पूरा परिवार उन के साथ हर तरह से सक्षम खड़ा था.
दिल्ली के बाद मुंबई जा कर सब से बेहतर इलाज की दिशा में प्रयास शुरू हुए. कई अलगअलग विशेषज्ञ डाक्टरों की राय और काउंसलिंग के बाद नीलम में आत्मविश्वास वापस आना शुरू हुआ. उन्होंने खुद को मजबूत किया. किसी भी औरत के लिए सब से कमजोर पहलू उस के खूबसूरत बाल होते हैं. ब्रैस्ट कैंसर में सुदंरता को ले कर अलग धारणा मन में थी. सर्जरी के पहले डाक्टर ने जब यह बता दिया कि इस में ब्रैस्ट को कोई नुकसान नहीं होगा और बाल वापस आ जाएंगे, तब मन मजबूत हुआ. नीलम कहती हैं, ‘‘सर्जरी करने वाले डाक्टर से बात करने के बाद मेरी सारी चिंताएं शांत हो गईं. सर्जरी से पहले हर तरह के टैस्ट किए जाने के बाद औपरेशन हुआ. औपरेशन के बाद एक ट्रेनपाइप लगा कर मुझे अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया. दवाओं का शरीर पर बुरा प्रभाव था. इस के बाद भी मैं खुद को व्यस्त रखना चाहती थी. मैं पार्टी, शौपिंग सबकुछ करने लगी.
‘‘सर्जरी के बाद कीमोथेरैपी शुरू हुई. हर 21 दिन पर 4 बार कीमोथेरैपी होने लगी. पहली थेरैपी के बाद ही मेरे बाल गिरने लगे. कई लोगों ने राय दी कि विग लगा लो. मेरा मन विग के लिए तैयार नहीं था. मैं ने अपने सिर के सारे बाल मुड़वा दिए. यह फैसला मेरे लिए और मेरे जानने वाले लोगों के लिए कठिन था.
‘‘मैं डर में नहीं जीना चाहती थी. बिना बाल के ही लोगों से मिलना, पार्टी और शौपिंग करना शुरू कर दिया.
‘‘अब मेरे बाल वापस आने लगे हैं. मैं ने कभी विग नहीं लगाई. जैसे नैचुरल बाल रहे उस की स्टाइल बना ली. हमेशा अपने को समाज के सामने रखा. कभी हिम्मत हार कर खुद को घर में कैद नहीं किया.
‘‘मेरा मानना है कि इस मर्ज में सब के साथ खुद की ताकत बहुत जरूरी होती है. कैंसर का इलाज बहुत खर्चीला है. इलाज के बाद भी जीवनभर दवाओं और जांच पर टिके रहना होता है. ऐसे में इलाज की कीमत का अंदाजा लगाना कठिन होता है. मेरे मामले में केवल डाक्टरी खर्च, दवा और जांच में 35 से 40 लाख रुपए खर्च हो चुके हैं. यह कमज्यादा भी हो सकता है.’’
मुमताज भी हैं मिसाल
60-70 के दशकों में धूम मचा देने वाली अभिनेत्री मुमताज अब 68 साल की हो रही हैं. साल 2000 में मुमताज को ब्रैस्ट कैंसर हुआ था. उन के बाएं स्तन में गांठ थी. मैमोग्राफी से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि बगैर औपरेशन के वह ठीक नहीं हो सकती तो मुमताज ने सर्जरी कराने का फैसला ले लिया. जब कैंसर का पता चला, उस पूरी रात मुमताज सो नहीं पाई थीं. यह वह दौर था जब वे गुजराती मूल के व्यवसायी मयूर वाधवानी से शादी कर इंगलैंड में जा बसी थीं. वे फिल्मों को अलविदा कह चुकी थीं. मुमताज शुरू से ही हार न मानने वाली अभिनेत्री रही हैं. यही आत्मविश्वास कैंसर से लड़ कर जीतने में भी काम आया. औपरेशन हुआ, कीमोथेरैपी और रेडियोथेरैपी भी हुईं जिस से उन का खानापीना बंद हो गया था. मुमताज ने हार नहीं मानी और एक दिन ऐसा भी आया जब डाक्टरों ने उन्हें विजयी यानी कैंसरमुक्त घोषित कर दिया.
कैंसर को दी मात
कई कामयाब और हिट फिल्मों के निर्देशक अनुराग बासु की सकारात्मकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे कहते हैं कि उन्होंने कैंसर का नहीं, बल्कि कैंसर ने उन का सामना किया. साल 2004 में अनुराग को ल्यूकेमिया नाम का कैंसर हुआ था. तब वे फिल्म ‘तुम सा नहीं देखा’ का निर्देशन कर रहे थे. प्रोयाइलोसाइटिक ल्यूकेमिया एक तरह का ब्लड कैंसर होता है जिस से ठीक होने की बाबत डाक्टर कोई गांरटी नहीं देते.
आज अगर अनुराग को देखें तो लगता नहीं कि यह वही शख्स है जिसे डाक्टरों ने कह दिया था कि उस के पास 2-3 महीने का ही वक्त है. अनुराग ने कैंसर के आगे सिर नहीं झुकाया और 3 वर्षों के लंबे इलाज के बाद वे जीत गए. दृढ़ इच्छाशक्ति वाले डायरैक्टर ने 17 दिन वैंटीलेटर पर भी गुजारे थे.
मौत के मुंह से वापस आए अनुराग बासु अब कैंसर पर फिल्म बनाने की सोच रहे हैं जिस में उन के व्यक्तिगत अनुभव स्वाभाविक तौर पर शामिल होंगे.
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