पंडितों के धार्मिक कर्मकांड व नित्य नियम के साथ पूजा, सांध्योपासना, ब्रह्मयज्ञ आदि के विषय में पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है. जिन से स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणों, पंडितों के लिए कम बंदिशें न थीं.
और भी बंदिशें देखिए :
वर्जयेन्मधु मांसं च गंधं माल्यं रसान्स्त्रिय:
शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम्. -2-177
अर्थात बह्मचारी मधु (शहद) मांस, सुगंधित पदार्थ, फूलों की माला, रस, स्त्री आदि और जीवों को मारना छोड़ दे.
अभ्यंगमंजनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्र धारणम्
कामं क्रोधं च लोभं च नर्तनं गीतवादनम्.
-2-178
अर्थात ब्रह्मचारी सिर से पैर तक तेल मालिश या उबटन, आंखों में अंजन लगाना, जूता और छाता धारण करना, काम (विषयाभिलाषा) क्रोध, लोभ, नाचना, गानाबजाना छोड़ दे.
यानी उस के लिए अपनी मर्जी से जीने के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं गया.
आज भी ब्रह्मचर्य की बात की जाती है. स्वामी देवेंद्रानंद गिरि कहते हैं कि ब्रह्मचर्य ब्राह्मण को ब्रह्म के समान बना देता है. इसीलिए कहा भी जाता है कि ब्रह्मचारी के दर्शन करना भगवान के दर्शन के बराबर है. ब्रह्मचर्य ही धर्म है और यह सब व्रतों व नियमों में सब से कठिन है.
एक: शयीत सर्वत्र न रेत: स्कंदयेत्क्वचित
कामाद्धि स्कंदयन्रेतो हिनस्ति व्रतमात्मन:.
अर्थात ब्रह्मचारी सर्वत्र अकेला ही सोए, इच्छापूर्वक वीर्यपात न करे, क्योंकि इच्छापूर्वक वीर्यपात करता हुआ ब्रह्मचारी अपने व्रत से भ्रष्ट हो जाता है.
दूरादराहृत्ये समिध: सन्निदध्याद्विहायसि
सायम्प्रातश्च जुहुयात्ताभिरग्निमतंद्रित:.
-2-186
अर्थात दूर से समिधा ला कर उन्हें खुले स्थान में रख दे और उन समिधाओं से प्रात:काल तथा सायंकाल हवन करे.
चोदितो गुरुणा नित्यमप्रचोदित एव वा
कुर्यादध्ययने यत्नमाचार्यस्य हितेषु च.
-2-191
अर्थात आचार्य के कहने पर अथवा न कहने पर भी ब्रह्मचारी अध्ययन और आचार्य के हित में सर्वदा प्रयत्नशील रहे.
शरीरं चैव वाचं च बुद्धींद्रियमनांसि च
नियम्य प्रांजलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्.
-2-192
अर्थात शरीर, वचन, बुद्धि, इंद्रिय और मन को वशीभूत कर के हाथ जोड़ कर गुरु के मुख को देखता हुआ स्थित होवे (बैठे नहीं, किंतु खड़ा रहे).
इस तरह उसे व्यक्तिपूजा की सीख ही दी गई है और एक तरह से गुरु का गुलाम बना दिया गया.
ऐसा न करने पर ब्राह्मण के लिए सजा का प्रावधान भी है :
अकृत्वा भैक्षचरणमसमिध्य च पावकम्
अनातुर: सप्तरागमवकीर्णिव्रतं चरेत्.
-2-187
अर्थात नीरोग रहता हुआ भी ब्रह्मचारी यदि बिना भिक्षा मांगे तथा बिना हवन किए 7 दिनों तक रहे तो अवकीर्णि व्रत रखे.
नित्यमुद्धृतपाणि: स्यात्साध्वाचार: सुसंयत:
आस्यतामिति चोक्त: सन्नासीताभिमुखं गुरो:. -2-193
अर्थात ब्राह्मण सदा दुपट्टे के बाहर दाहिना हाथ रखे, सदाचार से युक्त और अच्छी तरह संयत रहे तथा ‘बैठो’ ऐसा गुरु के कहने पर उन के सामने बैठे.
हीनान्नवस्त्रवेष: स्यात्सर्वदा गुरुसन्निधौ
उत्तिर्ष्ठेत्प्रथमं चास्य चरमं चैव संविंशेत्.
-2-194
अर्थात सर्वदा गुरु की अपेक्षा अन्न, वस्त्र तथा वेष को हीन रखे और गुरु के सो कर उठने से पहले उठे तथा सोने के बाद सोए.
इस तरह ब्राह्मण पर तरहतरह के निरर्थक नियम लादे गए हैं जिन से उसे किसी लाभ का कोई तार्किक कारण नहीं दिखाई पड़ता.
रामायण, महाभारत ही नहीं, दूसरे सभी पुराण भी इस तरह के प्रसंगों से भरे हैं जिन में ब्राह्मण कहलाए जाने पर या भूखे रहने पर राजा या देवताओं के आगे हाथ फैलाते दिखाए जाते हैं. वे खुद कुछ नहीं कर सकते, अत: उन के बचाव में दूसरों का सहारा लेना पड़ता है.
ब्राह्मण का अपमान
गं्रथों में जपतप, दान और श्राद्ध में भोजन करने की लिए भी ब्राह्मण की योग्यता तय की गई है. ग्रंथों में लिखा गया है कि वेद पढ़ा, यज्ञोपवीत धारण करने वाला ब्राह्मण ही सत्पात्र माना गया है. जो बेचारा ब्राह्मण वेद आदि न पढ़ा हो उसे शूद्र, चांडाल तक कह कर अपमानित किया गया है.
भिक्षा और मुफ्त भोजन के लिए भी ब्राह्मण की योग्यता तय की गई है :
नश्यंति हव्यकव्यानि नराणामविजानताम्
भस्मीभूतेषु विप्रेषु मोहाद्दत्तानि दातृभि:.
(मनुस्मृति-3-97)
अर्थात अज्ञानी मनुष्य के द्वारा वेद तथा वेदार्थ ज्ञान से हीन ब्राह्मण के लिए देवों तथा पितरों के उद्देश्य से दिए गए हव्य तथा कव्य नष्ट हो जाते हैं. (वे देवों तथा पितरों को नहीं मिलते).
सहस्रं हि सहस्राणामनृचां यत्र भुंजते
एकस्तान्मत्रवित्प्रीत: सर्वानर्हति धर्मत:.
(मनुस्मृति-3-131)
यानी जिस श्राद्ध में हजार गुना हजार (10 लाख) बिना पढे़ हुए ब्राह्मण भोजन करते हैं, वहां यदि वेद पढ़ने वाला एक ही ब्राह्मण भोजन कर संतुष्ट हो तो उन 10 लाख भोजन करने वाले ब्राह्मणों के योग्य होता है.
इस श्लोक में ब्राह्मणों को वेद पढ़ने की ताकीद की गई है ताकि वे मुफ्त का भोजन करने के काबिल बन सकें. वह भी महज अंधविश्वासों को परोसने वाले वेद, जो निरर्थक, थोथी बकवास के अलावा कुछ नहीं हैं.
वेदमंत्र नहीं जानने वाले ब्राह्मण को मूर्ख कह कर अपमानित किया गया है,
यावतो ग्रसते ग्रासान् हव्यकव्येष्वमंत्रवित्
तावतो ग्रसते प्रेत्य दीप्तशूलर्ष्ट्ययोगुडान्.-3-133
अर्थात वेदमंत्र को नहीं जानने वाला ब्राह्मण हव्य (यज्ञ) तथा कव्य (श्राद्ध) में जितने ग्रासों को खाता है, श्राद्धकर्ता (उक्त कर्मों में उस मूर्ख ब्राह्मण को भोजन कराने वाला) मरने पर उतने ही गरमगरम शूलर्ष्टि (दोतरफा धार वाला अस्त्र विशेष) और लोहे के पिंडों को खाता है. (अत: मूर्ख ब्राह्मण को श्राद्ध में भोजन नहीं कराना चाहिए).
रोगी हीनातिरिक्तांग: काण: पौनर्भवस्तथा
अवकीर्णि कुंडगोलौ कुनखी श्यावदंतक.
(याज्ञवल्क्य स्मृति, श्राद्ध प्रकरणं
वर्णनम्-222)
अर्थात श्राद्ध में ये ब्राह्मण वर्जित हैं- जो महान रोग से ग्रस्त हो, हीन या अधिक अंगों वाले, काने, द्विरूढ़ा स्त्री से उत्पन्न, स्खलित ब्रह्मचर्य वाले, कुंड अर्थात परस्त्री से उस के पति के जीवित रहते उत्पन्न, गोलक यानी पति के मर जाने के बाद परपुरुष से उत्पन्न कुत्सित नाखून वाले, काले दांतों वाले पुरुष श्राद्ध में निंदित होता है.
य: संगतानि कुरुते मोहाछ्राद्धेन मानव:
स स्वर्गाच्च्यवते लोकाच्छ्र्राद्धमित्रो द्विजाधम:. -3-140
अर्थात जो मनुष्य मोहवश (शास्त्रज्ञान के नहीं होने से) श्राद्ध के द्वारा मित्रता करता है, श्राद्धमित्र (श्राद्ध के लिए मित्रता का निर्वाह करने वाला) वह नीच ब्राह्मण स्वर्ग से भ्रष्ट होता है. उसे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती.
यत्नेन भोजयेच्छ्र्राद्धे बहवृचं वेदपारगम्
शाखांतगमथाध्वर्युं छंदोगं तु समाप्तिकम्.
-3-145
अर्थात मंत्र-ब्राह्मण शाखा को पढे़ हुए ऋग्वेदी, यजुर्वेदी, वेदों का पारगामी (संपूर्ण वेदों को पढे़ हुए) सब शाखाओं को पढे़ हुए ऋत्विज्, वेदों को पढ़ कर समाप्त कर चुके विद्वान, ब्राह्मण को प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध में भोजन कराएं.
ये स्तेनपतितक्लीबा ये च नास्तिकवृत्तय: तान्हव्यकव्योर्विप्राननर्हान् मनुरब्रवीत्.
-3-150
अर्थात जो ब्राह्मण चोर, पतित, नपुंसक तथा नास्तिक व्यवहार करने वाला है, उस ब्राह्मण को मनु ने हव्य (देवकार्य) तथा कव्य (पितृकार्य-श्राद्ध) में अयोग्य बताया है.
जटिलं चानधीयानं दुर्बलं कितवं तथा
याजयंति च ये पूंगास्तांश्च श्राद्धे न भोजयेत. -3-151
यानी वेद को नहीं पढ़ता हुआ ब्राह्मण ब्रह्मचारी, दुर्बल, दूषित चमड़े वाला जिस के सिर में बाल न हों तथा लाल, भूरे बालों वाला, जुआरी, बहुतों को यज्ञ कराने वाला, इन सब को श्राद्ध में भोजन न कराएं. चिकित्सकांदेवलकान्मांसविक्रयिणस्तथा
विपणेन च जीवतो वर्ज्या: स्युर्हव्यकव्ययो:. -3-152
, मंदिर का पुजारी, एक बार भी मांस बेचने वाला और व्यापार कर्म से जीने वाला इन ब्राह्मणों को हव्य तथा कव्य में भोजन न कराएं.
आज की बात करें तो जागरण याहू इंडिया वेबसाइट के धर्म मार्ग में वैदिक रीतिरिवाज स्तंभ पर डा. रामराज उपाध्याय श्राद्धों पर लिखते हैं, ‘‘मत्स्यपुराण में 3 प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य के नाम से जाना जाता है. यमस्मृति में 5 प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है. विश्वामित्र स्मृति तथा भविष्यपुराण में 12 श्राद्धों का वर्णन है. शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं. जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए.
यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्र: प्रत्यभिवादनम्
नाभिवाद्य: स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव स:. -2-126
अर्थात जो ब्राह्मण अभिवादन के बाद प्रत्यभिवादन भी न जानता हो, विद्वान ब्राह्मण उस का अभिवादन भी न करें क्योंकि जैसा शूद्र है वैसा ही वह है.
एकदेशं तु वेदस्य वेदांगान्यपि व पुन:
योऽध्यापति वृत्तार्थमुपाध्याय: स उच्यते.
-2-141
अर्थात जो ब्राह्मण वेद के एकदेश (मंत्र तथा ब्राह्मण भाग) को तथा वेदांगों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंदशास्त्र) को जीविका के लिए पढ़ाता है वही उपाध्याय कहलाता है.
निषेकादीनि कर्माणि य: करोति यथाविधि
संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुच्यते.
-2-142
यानी जो शास्त्रानुसार गर्भाधानादि संस्कारों को करता है और अन्नादि के द्वारा पालनपोषण करता है उस ब्राह्मण को गुरु कहते हैं.
इस का मतलब हुआ बाकी ब्राह्मण न गुरु बन सकते हैं और न कहला सकते हैं. केवल कर्मकांड करने वाले ब्राह्मण यानी अंधविश्वास फैलाने वाले ही गुरु कहलाते हैं. आगे भी लिखा है-
सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव
अमृतस्येव चाकांक्षेदवमानस्य सर्वदा.
-2-162
यानी ब्राह्मण विष के समान सम्मान से सर्वदा घबराता रहे. (सम्मान से प्रेम न करे) तथा अमृत के समान अपमान की सर्वदा आकांक्षा करे. (अपमान करने पर क्षमा करें)
लो, ब्राह्मण को मानसम्मान की आकांक्षा रखने से भी वंचित किया जा रहा है.
रूढि़वादी व्यवस्थाओं पर आधारित हिंदू धर्म ने इस वर्ग की तरक्की को तो अवरुद्ध किया ही है, उसे घोर अंध- विश्वासी और अपमानग्रस्त भी बना दिया है. पढ़ालिखा ब्राह्मण आज धर्म की इन बातों से शर्म महसूस करता है. कई जगहों पर वह हंसी, अपमान का पात्र बना है. इसी व्यवस्था के कारण वह गरीबी, अशिक्षा से भी जूझ रहा है.
देश की राजनीति व शिक्षा में ब्राह्मणों को बड़े स्थान मिले हुए हैं पर इन ग्रंथों और प्राचीन व्यवस्था के ढोने की मानसिकता के कारण वे लगभग पंगु से बने रहते हैं. इन के पास न बड़े उद्योग हैं न व्यवसाय. वे सफल मौलिक वैज्ञानिक भी नहीं हैं. कुशल प्रचारकों में उन का नाम नहीं आता. सेना में तो उन की गिनती है ही नाममात्र की.
वर्णव्यवस्था के खिलाफ यदि किसी को विद्रोह करना चाहिए तो वे ब्राह्मण ही हैं जो आज ही नहीं, सदियों से इस के शिकार होते रहे हैं. हां, आदर तो पाते रहे हैं लेकिन परजीवी बने रहे हैं. दलितों को मायावती व अंबेडकर जैसे नेता मिल गए, वैश्यों को गांधी जैसों का सहारा मिला पर ब्राह्मणों के नेताओं ने उन धर्मग्रंथों को थोपने की कोशिश की जो उन के हाथ काटते रहे हैं.