परीक्षाओं का दौर खत्म होने के बाद छात्रों को कुछ दिनों की राहत तो मिलती है पर साथ ही रिजल्ट का अनचाहा दबाव बढ़ने लगता है. बच्चे भले ही हम से न कहें पर उन्हें दिनरात अपने रिजल्ट की चिंता सताती रहती है. बोर्ड एग्जाम्स को तो हमारे यहां हौआ से कम नहीं माना जाता, जबकि यह इतना गंभीर नहीं होता जितना हम इसे बना देते हैं. आजकल तो छोटी क्लास के बच्चों पर भी रिजल्ट का दबाव रहता है और इस दबाव की वजह सिर्फ और सिर्फ उन के पेरैंट्स होते हैं. ज्यादातर पेरैंट्स बच्चों के रिजल्ट को अपने मानसम्मान और प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखते हैं. यही वजह है कि वे खुद तो तनाव में रहते हैं, बच्चों को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तनाव का शिकार बना देते हैं.

छात्रों पर बढ़ता दबाव एग्जाम्स के रिजल्ट आने से पहले ही छात्रों के मनमस्तिष्क पर अपने रिजल्ट को ले कर दबाव पड़ने लगता है. एक तो स्वयं की उच्च महत्त्वाकांक्षा और उस पर प्रतिस्पर्धा का दौर छात्रों के लिए कष्टकारक होता है.

वैसे तो छात्रों को पता होता है कि उन के पेपर कैसे हुए और अमूमन रिजल्ट के बारे में उन्हें पहले से ही पता होता है, इसीलिए कुछ छात्र तो निश्ंिचत रहते हैं पर कुछ को इस बात का भय सताता रहता है कि रिजल्ट खराब आने पर वे अपने पेरैंट्स का सामना कैसे करेंगे. आत्महत्याएं चिंता का विषय

प्रतिस्पर्धा के दौर में सब से आगे रहने की महत्त्वाकांक्षा और इस महत्त्वाकांक्षा का पूरा न हो पाना छात्रों को अवसाद की तरफ धकेल देता है, जिस पर पेरैंट्स हर वक्त उन की पढ़ाई पर किए जाने वाले खर्च की दुहाई देते हुए उन पर लगातार दबाव डालते रहते हैं. इस से कभीकभी छात्र यह सोच कर हीनभावना के शिकार हो जाते हैं कि वे अपने पेरैंट्स की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके. यही वजह कभीकभी उन्हें अवसाद के दलदल में धकेल देती है और वे नासमझी में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं. पेरैंट्स के पास सिवा पछतावे के कुछ नहीं बचता. ऐसे में उन्हें यह विचार सताने लगता है कि काश, उन्होंने समय रहते अपने बच्चे की कद्र की होती. जिसे इतने अरमानों से पालापोसा, बड़ा किया वह उन के कंधों पर दुख का बोझ छोड़ कर चला गया. पिछले 15 सालों में 34,525 छात्रों ने केवल अनुत्तीर्ण होने की वजह से आत्महत्या की. ये आंकड़े सच में निराशाजनक और चिंतनीय हैं जिन पर सभी को विचार करने की जरूरत है.

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