बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देना और बेटियों को समाज में सुरक्षा देना दोनों ही अलगअलग मुद्दे हैं. आज लड़कियां लड़कों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. कई जगह तो वे हुनर में लड़कों से आगे हैं. पुरुषवादी समाज इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं है.

रात में अकेले सफर करती लड़की हो या बाइक चलाती लड़की, देखने वाले इन को अलग नजरों से ही देखते हैं. हद तो तब हो गई जब 11 नवंबर को उत्तर प्रदेश के कानपुर के चंदारी स्टेशन के पास ट्रेन में छेड़खानी से परेशान हो कर एक महिला अपनी बेटी के साथ चलती ट्रेन से कूद गई. पढ़ाई से ले कर नौकरी करने की जरूरतों में होस्टल में रह रही लड़कियों को सहज, सुलभ मान लिया जाता है.

मजेदार बात यह है कि घरपरिवार, मकानमालिक, कालेज प्रबंधन और पुलिस तक से शिकायत करने पर गलत लोगों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाने के बजाय लड़कियों को नैतिक शिक्षा दी जाने लगती है. यही वजह है कि छेड़खानी आज सब से बड़ी परेशानी बन कर उभर रही है. बहुत सारे कड़े कानूनों के बाद भी हालत सुधर नहीं रही है.

वाराणसी के बीएचयू यानी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में छेड़खानी की परेशानी को हल करना कुलपति प्रो. जी सी त्रिपाठी ने उचित नहीं समझा. छेड़खानी का विरोध कर रही लड़कियों पर ही लाठियां बरसा दी गईं. कुलपति से ले कर जिला प्रशासन, पुलिस, प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार तक ने छेड़खानी के मुद्दे को दरकिनार कर घटना को राजनीतिक रंग देने का काम किया. इस के बाद भी सरकार और समाज के जिम्मेदार लोग कहते हैं कि लड़कियां छेड़खानी जैसे मसलों पर चुप क्यों रहती हैं, उन को शिकायत करनी चाहिए.

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