हमारा एक वर्गविशेष प्राचीन गुरुशिष्य प्रणाली को वैकल्पिक प्रणाली के तौर पर प्रस्तुत करता रहता है और उस के प्रति अपनी भावुकतापूर्ण ललक व्यक्त करता है. गुरुशिष्य प्रणाली के प्रामाणिक दस्तावेज की खोज में ‘गुरुगीता’ नाम की एक पुस्तक पिछले दिनों दिखी. यह इस पुस्तक का 1986 में छपा 5वां संस्करण है. इस से पहले इस का तीसरा संस्करण 1920 में प्रकाशित किया गया था. दूसरा संस्करण 1920 से पूर्व छपा होगा.

यह 221 श्लोकों की पुस्तक है, भारतधर्म महामंडल, वाराणसी से छपी है. इस में गुरु और शिष्य के संबंधों पर महादेवपार्वती के संवाद के रूप में बहुत विस्तार से प्रकाश डाला गया है.

माहात्म्य में ही कह दिया गया है कि इस किताब की एक प्रति दान करने से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं, इस के पाठ से गरीबी दूर होती है, बड़ेबड़े रोग ठीक हो जाते हैं, संपत्तियां प्राप्त होती हैं, बंध्या नारी के पुत्र पैदा हो जाता है और विधवा होने की आशंका दूर हो जाती है, पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा मिल जाता है आदि. इदं तु भक्तिभावेन पठ्यते श्रूयतेऽथवा, लिखित्वा वा प्रदीयेत सर्वकालफलप्रदम्.

205 इस गुरुगीता को जो भक्तिपूर्वक पढ़ता, सुनता या लिख कर दान करता है, उस की सब प्रकार की कामनाएं पूरी होती हैं.

सर्वपापहरं स्तोत्रं सर्वदारिद्र्यनाशनम्, अकालमृत्युहरणं सर्वसंकटनाशनम्.

208 यह गुरुगीता सब प्रकार के पापों का नाश करती है, सब प्रकार की गरीबी को दूर करती है, असमय होने वाली मृत्यु का निवारण करती है और सब संकटों को नष्ट करती है.

सर्वशांतिकरं नित्यं वन्ध्यापुत्रफलप्रदम्, अवैधव्यकरं स्त्रीणां सौभाग्यदायकं परम्.

213 इस के पाठ से सब पाप/दुष्ट ग्रह आदि शांत होते हैं, बांझ औरत को भी पुत्र की प्राप्ति होती है, स्त्रियों के विधवा होने की आशंका दूर होती है और परम सौभाग्य की प्राप्ति होती है.

आयुरारोग्यमैश्वर्यपुत्रपौत्रादिवर्धकम्, निष्कामतस्त्रिवारं वा जपन्मोक्षमवाप्नुयात्.

214 निष्काम भाव से इस का थोड़ा सा पाठ करने पर आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, पुत्र, पौत्र आदि की वृद्धि होती है और इस का 3 बार जप करने से मोक्ष प्राप्त हो जाता है.

शुचिदेव सदा ज्ञानी गुरुगीताजपेन तु, यस्य दर्शनमात्रेण पुनर्जन्म न विद्यते.

220 ज्ञानी मनुष्य गुरुगीता का पाठ करने से सदा पवित्र रहते हैं. ऐसे पवित्र मनुष्यों के दर्शन करने से पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा मिल जाता है.

गुरु का अर्थ गुरु शब्द का अर्थ बताते हुए गुरुगीता कहती है कि ‘गु’ शब्द का अर्थ अंधकार है और ‘रु’ शब्द का अर्थ है उसे रोकने वाला :

गुशब्दस्त्वंधकार: स्याद् रुशब्दस्तन्निरोधक: अंधकारनिरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते.

15 ‘गुरु’ शब्द का अर्थ अंधकार है और ‘रु’ शब्द का अर्थ उस को रोकने वाला. अंधकार को रोकने या दूर करने वाले को ‘गुरु’ कहते हैं.

लगता है गुरुगीता को अपने इस मनगढं़त अर्थ पर स्वयं भी विश्वास नहीं है. इसलिए उस ने श्लोक 16 में इन्हीं शब्दों को तोड़मरोड़ कर एक नया अर्थ निकाल कर फिर से भरमाने की कोशिश की है : गकार: सिद्धिद: प्रोक्तो रेफ:

पापस्य दाहक:, उकार: शंभुरित्युक्तास्त्रियाऽऽत्मा

गुरु: स्मृत:. 16 ‘ग’ 6गकार8 का अर्थ है ‘सिद्धि देने वाला’, ‘र’ 6रकार8 का अर्थ है ‘पापों को दूर करने वाला’ और ‘उ’ 6उकार8 का अर्थ है ‘शिव’ अर्थात गुरु का अर्थ है, सिद्धिदाता शिव पापहर्ता शिव.

एक अन्य श्लोक में कहा है- गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुगुरुर्देवो महेश्वर:,

गुरु: साक्षात् पर ब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नम:. 147

अर्थात गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु शिव है. गुरु परंब्रह्म है. लगता है सदियों से गुरुओं के बारे में लोगों को संशय रहा है और हर ग्रंथ में गुरु महिमा इसीलिए गाई गई है कि यह संशय दूर रहे.

गुरु केवल ब्राह्मण श्लोक नं. 34 कहता है, ‘गुरु’ केवल ब्राह्मण हो सकता है, यह पद उस के लिए गुरुगीता ने आरक्षित घोषित कर रखा है. शिष्य भी ऐरागैरा नहीं बन सकता. वह भी ‘कुलीन’ होना चाहिए. अर्थात यह सारा ऊंची जातियों का खेल है क्योंकि शूद्र के लिए शिक्षा का कहीं विधान ही नहीं है. शूद्र ‘कुलीन’ कैसे हो सकता है? क्षत्रिय व वैश्य शामिल हों तो भी आश्चर्य होगा. प्राचीन गुरुशिष्य प्रणाली ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मणों की शिक्षा के लिए बनाई गई थी.

आज यदि उस गुरुशिष्य प्रणाली को निहित स्वार्थी तत्त्व लागू कर या करवा देते हैं तो हमारी शिक्षा की सब समस्याएं, आरक्षण मांगने वालों के आंदोलन, पढे़लिखे बेरोजगारों का संकट आदि पलक झपकते ही खत्म हो जाएंगे, क्योंकि तब पढ़ ही कुछ प्रतिशत जनसंख्या वाली उच्च जातियों के सदस्य सकेंगे. बाकी जब पढ़ ही नहीं पाएंगे, तब कैसा आरक्षण. शिष्य का अर्थ

शिष्य के लिए जरूरी है कि वह आस्तिक हो अर्थात उस का दिमाग खुला नहीं, बंद होना चाहिए. वह सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हो. शरीरमर्थं प्राणांश्च गुरुभ्यो य: समर्पयन् ,

गुरुभि: शिष्यते योगं स शिष्य इति कथ्यते. 54

गुरु के लिए शरीर, धन और प्राणों तक को अर्पित कर दे क्योंकि वह गुरु से शिक्षा प्राप्त करता है, इसलिए ‘शिष्य’ कहलाता है. पत्नी भी गुरु को अर्पित

गुरुगीता बात यहीं नहीं खत्म करती, बल्कि यह भी कहती है कि शिष्य अपनी पत्नी भी गुरु को अर्पित करे : आत्मदाराऽऽदिकं सर्वं गुरवे च निवेदयेत्.

55 अपनी पत्नी आदि सबकुछ गुरु को अर्पित करें.

इस के बाद शिष्य को खानेपीने के बारे में गुरुगीता का आदेश है कि वह गुरु के पैरों का धोवन पिए तथा उस का जूठा बचा खाना खाए : गुरुपादोदकं पेयं गुरोरुच्छिष्टभोजनम्,

57 गुरु के पैरों को जिस पानी से धोया जाए, उसे पिए तथा गुरु का जूठा बचा खाना खाए.

यह मर्ज दवा से बेहतर है जो लोग आज प्राचीन गुरुशिष्य प्रणाली को लाने के लिए चिल्ला रहे हैं, क्या उन के बच्चे ये सब करने को तैयार होंगे या यह सिर्फ गरीबों, दबे

व कुचले लोगों और सदियों से अधिकारवंचितों के बच्चों के लिए ही प्रस्तावित किया जाएगा? गुरु के पैर दबाने की गुरुगीता में बहुत महिमा गाई गई है :

सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरो: पादसेवनात्, सर्वतीर्थावगाहस्य फलं प्राप्नोति निश्चितम्.

169 गुरु के पैर दबाने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं. जितना फल सब तीर्थों में नहाने पर मिलता है, वह सब गुरु के पैर दबाने वालों को मिलता है.

इसी तरह की महिमा गुरु के पैरों का धोवन पीने की भी गाई गई है : सप्तसागरपर्यंत तीर्थस्नानादिकै: फलम्,

गुरोरंघ्रिपयोबिंदुसहस्रांशेन दुर्लभम्. 161

सात समुद्रों तक जितने तीर्थ हैं, उन में स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, गुरु के पैरों की धोवन की एक बूंद पीने से उस से हजारगुना ज्यादा फल प्राप्त होता है. यद्यपि गुरु को शिव, ब्रह्मा आदि कहा गया है और उसे इंसान के रूप में देखने वाले को नरकगामी घोषित किया गया है तथापि यह कटु यथार्थ है कि वास्तव में वह एक इंसान ही रहता है.

इसीलिए गुरुगीता ने शिष्य को आदेश दिया है कि वह यदि गुरु को कोई बुरा काम करता देखे या गुरु कोई बुरा काम उसी (शिष्य) से करे तो शिष्य का कर्तव्य है कि उस की बाबत कभी मुंह न खोले, उस के बारे में अंधा और गूंगा ही नहीं बना रहे, बल्कि बहरा भी बन जाए : दुष्कृतं न गुरोर्ब्रूयात्,

परिवादं न शृणुयादन्येषामपि कुर्वताम्. 63 गुरु के कुकर्म की बाबत पर मुंह न खोलें. यदि उस के कुकर्म की चर्चा दूसरे लोग करें भी, तो उस चर्चा के प्रति बहरा बन जाएं, उसे अनसुना कर दें.

गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापि प्रवर्तते, कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गंतव्यं वा ततोऽन्यत:.

70 जहां कोई गुरु के दुष्कर्म की चर्चा करे, उस की निंदा करे, वहां शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपने कानों पर हाथ रख ले या वहां से उठ कर किसी और जगह चला जाए.

गुरु दुष्कर्म करते ही होंगे, तभी तो इन श्लोकों में उन्हें दबाने व छिपाने के लिए इतना जोर दिया गया है. इस से बढ़ कर गुरुशिष्य प्रणाली की विडंबना और क्या हो सकती है? गुरु ही ईश्वर है

गुरुगीता शिष्य से आशा करती है कि उस का आस्तिकवाद गुरु पर ही केंद्रित हो, ईश्वर पर नहीं. गुरुमूर्तिं स्मरेन्नित्यं गुरुनाम सदा जपेत्,

गुरोराज्ञां प्रकुर्वीत गुरोरन्यं न भावयेत्. 66

हमेशा गुरु की मूर्ति का ध्यान करे, सदा गुरु के नाम का जाप करे, सदा गुरु की आज्ञा का पालन करे तथा गुरु के सिवा और किसी का चिंतन न करे. शिष्य नौकर है

शिष्य सदा गुरु के नौकर (=भृत्य) की तरह ही अपने को समझे- आज्ञया कुरुते कर्म शिष्यश्च भृत्यवत्.

75 अर्थात गुरु के व्यक्तिगत काम करें, उस के घर के काम करें आदि.

यदि गुरु संतुष्ट है तो शिष्य समझे कि उसे कोटिकोटि जन्मों में किए गए जप, व्रत, तप और कर्मकांड का फल प्राप्त हो गया है. विष्ठा का कीड़ा

गुरुगीता कहती है कि शिष्य के लिए उचित है कि वह वाणी, मन, शरीर और कर्म के द्वारा गुरु का हित करे, उसे हर तरह से लाभ पहुंचाए. जो शिष्य गुरु का हित नहीं करता, उस के फायदे के लिए यत्न नहीं करता, वह अगले जन्म में टट्टी में कीड़ा बनता है. इस सारी प्रक्रिया के दौरान पूरी गुरुगीता में यह कहीं भी स्पष्ट नहीं होता कि गुरु शिष्य को कब और कैसे पढ़ातालिखाता था, और न ही यह स्पष्ट होता है कि शिष्य कभी कुछ पढ़तालिखता था भी या नहीं. इस के बारे में गुरुगीता के 79वें श्लोक में बहुत गोलमोल ढंग से सिर्फ यह लिखा मिलता है कि जैसे कोई मनुष्य खुरपे द्वारा मिट्टी को खोदतेखोदते एक दिन नीचे जल प्राप्त कर लेता है, उसी तरह जो शिष्य गुरुसेवा में लगा रहता है, वह गुरु की सारी विद्या को प्राप्त करने में एक दिन सफल हो जाता है.

पर इस से यह स्पष्ट नहीं होता कि गुरु किस विधि से और क्या पढ़ाता था? शिष्य कैसे सीखता था? उसे लिखना, पढ़ना, गणित आदि गुरु कैसे सिखाता था? कब से कब तक? क्या कोई पाठ्यक्रम भी होता था या नहीं और उसे किस प्रकार व्यवहार में लाया जाता था? शिष्य की योग्यता को सेवा के मीटर से मापने के अतिरिक्त क्या कोई अन्य विधि भी थी? उसे कैसे व्यवहार में लाया जाता था? कौन उस का स्तरीकरण, मानकीकरण और प्रामाणिकीकरण करता था? गुरुडम का मकड़जाल

गुरुगीता में जिस गुरुशिष्य परंपरा का प्रतिपादन किया गया है और जिस शिक्षाविधि का वर्णन है, वह शिक्षापद्धति के स्थान पर गुरुडम स्थापित करने की ही विधि है. यदि प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा फिर लागू की जाती है तो शिक्षा का बेड़ा तो गर्क होगा ही.

एकलव्य की त्रासदी प्राचीनकाल में भी यही कुछ

था. प्राचीनकाल के (महाभारतकालीन) शिष्यों में एकलव्य जैसा वफादार शायद कोई शिष्य नहीं था. उसे गुरु ने शिक्षा देने से इसलिए इनकार कर दिया था कि वह शूद्र था, आदिवासी था. ब्राह्मण गुरु उसे शिक्षा कैसे दे सकता था. शिक्षा के लिए जरूरी था कि शिष्य का पहले उपनयन संस्कार हो. वह संस्कार शूद्र का हो नहीं सकता था. सब धर्मशास्त्रों ने उस के उपनयन संस्कार का निषेध किया है. लाचार हो कर एकलव्य जंगल को लौट गया और एक अनगढ़ पत्थर को गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति के रूप में सम्मानित कर के स्वयं ही धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा. जैसा कहा जाता है, अभ्यास से आदमी पूर्ण हो जाता है, अपने निरंतर अभ्यास से एकलव्य भी धनुष चलाने में प्रवीण हो गया.

जब गुरुजी को यह पता चला कि उन की मूर्ति के प्रति सम्मान रखते व अभ्यास करतेकरते एकलव्य धनुष चलाने में इतना पारंगत हो गया है जितना शायद अर्जुन भी नहीं है, तो प्राचीन गुरुपरंपरा के प्रतिनिधि गुरुद्रोण ने उस विद्या के लिए गुरुदक्षिणा मांग ली जो उस ने उस कथित शिष्य को कभी दी ही नहीं थी और गुरुदक्षिणा भी ऐसी मांगी कि जिस से उस शूद्र की खुद अर्जित विद्या भी अनहोई के समान हो जाए. गुरु ने शिष्य का धनुष चलाने के लिए जरूरी अंग, उस का अंगूठा गुरुदक्षिणा के नाम पर कटवा लिया और एकलव्य का सारा अभ्यास पलभर में सदा के लिए मिट्टी में मिला दिया. अंगूठा कट जाने पर वह अब पहले की तरह धनुष चलाने के योग्य नहीं रह गया था. इसी गुरु द्रोण के नाम पर भारत सरकार ने श्रेष्ठ कोच के लिए ‘गुरु द्रोणाचार्य पुरस्कार’ स्थापित किया हुआ है. जब उत्तम व श्रेष्ठ ‘गुरु’ का यह हाल है, उस का शिष्य के प्रति इस तरह का अमानवीय, भेदभावपूर्ण और आपत्तिजनक व्यवहार है, तब छुटभैया गुरुओं के चरित्र की कल्पना आसानी से की जा सकती है.

शिष्य की बेटी, गुरु की दक्षिणा उपनिषदों में एक ऐसे गुरु के दर्शन होते हैं जो अपने भावी शिष्य की सुंदर व युवा बेटी को अग्रिम दक्षिणा के रूप में ग्रहण करता है और उसे ‘ज्ञान’ बाद में देता है. गुरुदक्षिणा भी युवा लड़की के रूप में और वह भी अग्रिम. इस पर भी तुर्रा यह कि वह गुरु शुरू में ही शिष्य को उस समय की सामाजिक गाली देता है, उसे ‘शूद्र’ कह कर उस का संबोधन करता है.

छांदोग्य उपनिषद (अ. 4) में आता है कि जानश्रुति काफी सामान – गौएं, रथ आदि – रैक्व को देने को तैयार है ताकि वह गुरु उसे अपना शिष्य बना ले और उसे ज्ञान दे. फिर भी वह उसे शिष्य बनाने को तैयार नहीं होता. परंतु जब वह अपनी युवा बेटी उसे पत्नी के तौर पर पेश करता है और कहता है- जायायं (मैं यह अपनी बेटी आप के लिए पत्नी के तौर पर लाया हूं), तब गुरु रैक्व कहता है- शूद्रानेनैव मुखेनालापयिष्यथा इति.

(अरे शूद्र, इस कन्या के मुख के कारण मैं तुझे ज्ञान देता हूं) अर्थात कन्या का मुख देखते ही ‘गुरुजी’ ज्ञान बघारने को तत्पर हो गए. दूसरे शब्दों में, गुरुजी भावी शिष्य से उस की बेटी दक्षिणा के तौर पर अग्रिम लेते हैं, तब कहीं जा कर ज्ञान देते हैं. क्या यह गुरुशिष्य संबंध पितापुत्र सा आदर्श संबंध है, जैसा अकसर प्रचार किया जाता है? क्या कोई पिता अपने पुत्र की पत्नी या बेटी इस तरह ग्रहण करता है?

गुरुगीता शिष्य को अपनी पत्नी गुरु को अर्पण करने का आदेश देती है जबकि उपनिषद के मुताबिक, शिष्य अपनी बेटी गुरु की भेंट चढ़ाता है. आखिर, ये सब क्या है? गुरुपत्नियों से संबंध

गुरुपत्नियां भी यौनशोषण किया करती थीं. हर धर्मशास्त्र में, हर स्मृति में, गुरुपत्नी से संबंध बनाने वाले शिष्य की चर्चा है, कभी उसे गुरुपत्नीगामी कहा गया है तो कहीं गुरुतल्पगामी आदि. हर स्मृति में ऐसे शिष्य को ही दोषी ठहराया गया है और उसे सख्त से सख्त दंड का भागी बनाया गया है, परंतु कहीं भी उस से गुरु की पत्नी को न दोषी कहा गया है और न उस के लिए किसी दंड का विधान किया गया है.

मनुस्मृति में इस विषय में कई वैकल्पिक विधान किए गए हैं. यदि शिष्य गुरुपत्नी से संबंध बनाए तो उस के लिए विधान है कि उसे लोहे की तपाई हुई शय्या पर लिटाया जाए तथा वह स्त्री की लोहे की बनी व आग में लाल की हुई मूर्ति का उसी तरह आलिंगन करे जैसे उस ने गुरुपत्नी से किया था. उस मूर्ति से तब तक उसे चिपटा कर रखे जब तक कि वह मर न जाए : गुरुतल्प्यभिभाष्यैनस्तप्ते स्वप्यादयोमये.

सूर्मी ज्वलन्ती स्वाश्लिष्येन्मृत्युना स विशुद्ध्यति.

(मनुमृति, 11/103). इस तरह के बर्बर दंडविधान केवल शिष्य के लिए हैं, न कि उस के साथ सहयोग करने वाली गुरुपत्नी के लिए. यदि बलपूर्वक शिष्य ने यह करतूत की होती तो मनुस्मृति वैसा लिख सकती थी, जैसा अन्य कई मामलों में उस ने लिखा है. बलात्कार इस तरह के मामलों में वैसे भी एकदम असंभव व अकल्पनीय था. यह सबकुछ आपसी रजामंदी से या लुभाफुसला कर ही किया जाता था. स्पष्ट है, ये सब काम गुरुपत्नी ही कर सकती थी, अल्पायु व अबोध शिष्य नहीं कर सकता था.

यदि यह कहा जाए कि कुछ शिष्य भी गुरुपत्नियों को फुसला कर या बलपूर्वक उन से शारीरिक संबंध बना लेते थे तो यह भी प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा के माथे पर कलंक ही है. उस की कथित महानता के बावजूद यदि यह सब होता था तो वह परंपरा आज आदर्श कैसे हो सकती है? क्या गुरुओं, संस्कृति, धर्म, शिक्षा आदि के यही संस्कार थे? यदि वे संस्कार इस तरह की गिरावट भी नहीं रोक सके तो कैसी महानता?

विद्या मुक्ति दिलाती है प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा के पक्षधर कहते हैं कि प्राचीनकाल की विद्या का

लक्ष्य बहुत महान था. ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात विद्या वह होती

है जो मुक्ति दिलाए. प्राचीनकाल की विद्या का उद्देश्य आजकल की तरह रोजगार के योग्य बनाना नहीं, बल्कि जन्ममरण के बंधन से मुक्त करना था.

जन्ममरण के इन बंधनों से मुक्त होने की उन्हीं की डींगें कुछ सार्थक हो सकती हैं जिन्होंने दुनियावी बंधनों व विदेशी हमलावरों की गुलामी से अपने को कभी मुक्त रहने या होने में रुचि दिखाई हो. जो लोग हजारों सालों तक कभी इस मुट्ठीभर गिरोह के गुलाम बने रहे तो कभी उस गिरोह के, उन की विद्या उन्हें इन सब से मुक्त क्यों नहीं करवा सकी? इहलोक में इस विद्या ने किस को मुक्त करवाया है? जो विद्या इस लोक में गुलामी से मुक्त नहीं करवा सकी, वह कथित परलोक में किसे और कैसे मुक्त करवाएगी? क्या है कोई प्रमाण ग्रंथों में या किसी के पास कि इस विद्या ने ‘इस’ को मुक्त करवाया है, इस ने ‘उस’ को मुक्त करवाया है? जो विद्या कुषाणों, शकों, हूणों, तुर्कों, मुगलों, पुर्तगालियों, अंगरेजों आदि से हमें मुक्त न रख सकी, वह विद्या कब और किसे तथा कहां व कैसे मुक्त करती थी या करती है?

हमारी विद्या विमुक्ति के लिए नहीं, पराजय के लिए रही, इस से हम विमुक्त नहीं, विजित हुए: सा विद्या या विजिताय

(हमारी विद्या हमारे हारते रहने का कारण सिद्ध हुई) अर्थात हमारी विद्या है- हारे को हरिनाम. रोजगार बनाम भीख

जो लोग प्राचीन विद्या को रोजगार के पीछे न दौड़ने वाली बता कर उस की महानता सिद्ध करना चाहते हैं, हमारा उन से कहना है कि यदि प्राचीन भारत की विद्या रोजगार की उपेक्षा न करती तो अपने यहां न शिष्य भीख मांग कर खाता, न गुरु. वह विद्या विमुक्ति क्या दिलाती जो दूसरों के आगे हाथ फैलाना सिखाती थी? भीख मांगना रोजगार न होने के कारण इतना महत्त्वपूर्ण बना दिया गया कि मनुस्मृति ने यहां तक कह दिया

कि जो ब्रह्मचारी (=विद्यार्थी) निरोग रहते हुए भीख नहीं मांगता वह अवकीर्णिव्रत करे. अवकीर्णिव्रत में क्या होता है? इस में काने गधे की चरबी से चौरास्ते पर हवन करना होता है.

जैसे शिष्य भीख पर पलता था वैसे ही गुरु. शिष्य भीख मांग कर लाता और माल गुरु के आगे रख देता था तथा बाद में खुद खाता था- जो पेटपूजा के लिए रोटी नहीं कमा सकता, जो भूख लगने पर हरेक के आगे हाथ फैलाता है, वह विमुक्ति के प्रति कितना गंभीर हो सकता है.

मांग कर खाने वालों, परोपजीवी लोगों को न आत्मसम्मान की चिंता होती है न मानवीय गरिमा की. वे तो मानो परतंत्र, पराधीन और गुलाम बनने के लिए अभिशप्त होते हैं. यही कारण है कि हम सब डींगों के बावजूद हजारों वर्षों तक विजित बने रहे, विमुक्ति तो हम ने बहुत लंबी व निरंतर गुलामी के बाद 1947 में प्राप्त की, वह भी अपनी विद्या के बल पर नहीं, बल्कि आधुनिक जगत में सीखी विद्या के बल पर. ऐसे में न गुरुशिष्य परंपरा की फिर से स्थापना वांछनीय है, न कथित परलोक में कथिततौर पर विमुक्त करने वाली विद्या ही अपनाने योग्य है, क्योंकि उस से रोजगार की जगह भीख ही पल्ले पड़ती है.

आधुनिक शिक्षा मानवीय समानता पर आधारित है. यह अनेकता में एकता स्थापित करने के उद्देश्य से प्रेरित है. परंतु प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा वाली विद्या, एकता में अनेकता पैदा करती है तथा संगठन को विघटन में परिणत करती है. जनेऊ : जातिभेद का नागपाश

प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा में विद्या की शुरुआत उपनयन (जनेऊ) संस्कार से होती है- उपनीय गुरु: शिष्यं शिक्षयेत्.

(मनुस्मृति, 2/69) अर्थात, गुरु शिष्य का उपनयन संस्कार कर के उसे शिक्षा दे.

उपनयन संस्कार की शुरुआत ही असमानता, भेदभाव और विघटन से ग्रस्त है, क्योंकि हर बच्चे के उपनयन का समय उस की जाति के अनुसार निर्धारित किया जाता है. ब्राह्मण के बालक का गर्भ से 8वें, क्षत्रिय के बालक का गर्भ से 11वें और वैश्य के बालक का गर्भ से 12वें वर्ष में उपनयन करने का विधान है: जाति के अनुसार हर बालक के जनेऊ (यज्ञोपवीत) की सामग्री भी एकदूसरे से भिन्न होनी चाहिए.

ब्राह्मण के बालक का जनेऊ कपास से बने सूत का होना चाहिए, क्षत्रिय के बालक का यज्ञोपवीत सन की रस्सी का बना हो तथा वैश्य के बालक का यज्ञोपवीत ऊन (भेड़ के बालों) का बना हो. कार्पासमुपवीतं स्याद् विप्रस्य,

शणसूत्रमयं राज्ञो, वैश्यस्याविजसौत्रिकम्. (मनु., 2/44)

यानी जनेऊ की सामग्री भी जन्म पर आधारित जाति के भेदभाव की परिचायक होनी चाहिए ताकि बिना बोले ही वह सामग्री हरेक को ऊंचनीच, भिन्नतावाद और विघटन सिखा व बता दे. शूद्र के लिए शिक्षा वर्जित

ऊपर हम ने देखा है कि उपनयन संस्कार अर्थात विद्या आरंभ संस्कार केवल 3 जातियों- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- के बालकों का होता था. बहुसंख्यक शूद्र जाति के बालकों के उपनयन अर्थात विद्या आरंभ का कहीं कोई विधान उपलब्ध नहीं होता. इस का मतलब स्पष्ट है कि प्राचीन शिक्षा पद्धति और गुरुशिष्य परंपरा के अनुसार शूद्र के लिए विद्या (पढ़नालिखना) वर्जित थी. अछूतों यानी आज के दलितों के लिए तो शिक्षा के पास फटकने की अनुमति भी न थी. स्वामी दयानंद की अदया

स्वामी दयानंद सरस्वती का कहना है कि मूर्ख को शूद्र कहते हैं. जो पढ़लिख नहीं सकता था, वह शूद्र कहलाता था. यह सरासर गलतबयानी है. ऐसा नहीं था कि वह पढ़लिख नहीं सकता था, वह अयोग्य था और मूर्ख था, वह शूद्र था, बल्कि वास्तविकता यह थी कि शूद्र को पढ़ने ही नहीं दिया जाता था, उसे अनपढ़ रखा जाता था और जानबूझ कर उसे मूर्ख बनाया जाता था.

जब शूद्र के विद्या आरंभ करने का कोई अवसर ही नहीं है, उस का उपनयन संस्कार ही नहीं है, किसी गुरु के पास उस के जाने का कोई विधान ही नहीं है और उसे पढ़ने दिया ही नहीं जाता, तब स्वामीजी ने उसे किस आधार पर ‘पढ़लिख सकने के अयोग्य’ घोषित कर दिया? स्पष्ट है कि प्राचीन गुरुशिष्य परंपरा और शिक्षापद्धति केवल 3 जातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) के बालकों को पढ़नेलिखने का अधिकार देती है और उन में भी परस्पर जातिगत भेद को हर कदम पर गहरा करती है.

इस तरह प्राचीन शिक्षापद्धति न केवल जातिगत भेदभाव को हवा देती है, बल्कि बहुसंख्यक शूद्र व दलित जातियों के लिए विद्या को वर्जित भी घोषित करती है. इतना ही नहीं, यह गुरुशिष्य परंपरा का कहना है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों की लड़कियों का उपनयन संस्कार नहीं होना चाहिए, उन को विद्या देने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सवर्ण लड़कियों का विवाह ही उन का विद्या आरंभ संस्कार है, पति की सेवा करना ही गुरुकुल में वास अर्थात विद्याध्ययन है तथा घरबार का कामकाज ही अग्निहोत्र आदि कर्म है.

संक्षेप में, न बहुसंख्यक शूद्रों (स्त्री-पुरुष दोनों) को पढ़ने का अधिकार है, न सवर्ण या असवर्ण लड़कियों को. यह है महान गुरुशिष्य परंपरा और प्राचीन शिक्षा पद्धति. इस परंपरा के ‘गुरुगीता’ जैसे ग्रंथ ज्ञानियों को नहीं, शोषितों को पैदा करते हैं और गुरुओं के नाम पर शिष्यों की पत्नियां हथियाने वालों को उकसाते हैं. यदि यह शिक्षा है तो अशिक्षा किसे कहते हैं? यदि यह ज्ञान है तो अज्ञान किसे कहते हैं और यदि इस तरह के लोग गुरु होते हैं तो गुरुकंटाल किन्हें कहते हैं?

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