एक बीमार विवाह के साथ रहना क्या विवाह को समाप्त करने से अच्छा है? यह सवाल बहुत से पुरुषों और स्त्रियों के मन में कौंधता है. जो पतिपत्नी सदा एकदूसरे को कोसते रहते हैं, एकदूसरे की गलतियां निकालते रहते हैं उन्हें अकसर लगता है कि इस विवाह के चक्कर में पड़े ही क्यों, क्यों नहीं वे विवाह तोड़ कर आजादी को अपनाते?
यह सवाल जीवन के उन चंद उलझे सवालों में से है जिन के उत्तर नहीं होते. विवाह, पहली बात समझ लें कोई संस्कार नहीं, कोई ईश्वरप्रदत्त नहीं, कोई परमानैंट जीवन का हिस्सा नहीं. विवाह हमेशा तोड़ा जाता रहा है. हमारे पौराणिक इतिहास में तो पतिपत्नी हमेशा विवाद से ग्रस्त रहे हैं और शायद ही कोई ऐसा जोड़ा हो, जो आदर्श पतिपत्नी के रूप में रहा हो. जो खुद ईश्वर के अवतार रहे हैं या अवतारों की संतान कहे जाते हैं, आदर्श पतिपत्नी का उदाहरण पेश नहीं कर सके.
इसीलिए किसी को भी विवाह तोड़ने पर कोई विशेष अपराध भाव नहीं पालना चाहिए. विवाह में बच्चे हुए या नहीं हुए, अगर लगने लगे कि इस बीमार काया को ढोने से अच्छा इस से मुक्ति पाना है तो इसे अपना लेना चाहिए. अगर मुसलमानों का कोई हिस्सा तीन तलाक को मानता है तो यह गलत नहीं, क्योंकि यह एकतरफा होते हुए भी सहज और सुलभ तरीका है एकदूसरे से रंज और रोष भरे संबंध को तोड़ने का.
भारतीय जनता पार्टी तो नहीं कर सकती पर दूसरी पार्टियों को चाहिए था कि वे कहते कि तीन तलाक का यह अधिकार पुरुषों के साथसाथ औरतों को भी मिले ताकि कानूनन बराबरी हो जाए और भेदभाव की आड़ में हिंदू एजेंडे को लागू न करा जा सके. यह सुविधा हिंदुओं को भी मिलनी चाहिए, क्योंकि एक बोझिल विवाह जितनी जल्दी समाप्त हो जाए उतना ही अच्छा है.