भारत में तमाम किस्म के माफिया हैं,जिनका किसी न किसी रूप में जिक्र होता रहता है. लेकिन भारतीय शहरों में एक बहुत बड़ा किराया माफिया है,जिसका आमतौर पर जिक्र नहीं होता. हालांकि यह इतना लाउड तो नहीं है कि इसका जिक्र हिंदी फिल्मों के विलेन के रूप में हो पर आंकड़ों की जमीन पर उतरकर देखें तो यह बहुत निर्णायक है. इस किराया माफिया की वजह से शहरों में रह रहे 16 से 20 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ पाते. इस माफिया की बदौलत भारत में उच्च शिक्षा 10-15 प्रतिशत महंगी है. यह किराया माफिया हर महीने 16 से 20,000 करोड़ रूपये की उगाही करता है; क्योंकि भारत की 28 प्रतिशत शहरी आबादी किराए में रहती है, जिसमें 5 प्रतिशत शहरों में उच्च शिक्षा हासिल कर रहे छात्र भी हैं.

पिछले दिनों वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने शहरों में मजदूरों तथा दूसरे आम लोगों के लिए जिस सस्ते सरकारी मकानों (पीपीपी योजना के तहत) के बनाने की सरकार की मंशा जाहिर की है, वह योजना आधी भी जमीन में उतर जाए तो कई करोड़ लोग खुशहाल हो जाएं. कम से कम गरीबी रेखा से तो ऊपर आ ही सकते हैं. सस्ते सरकारी या अर्धसरकारी मकान शहरी जीवन में क्रांति ला सकते हैं. क्योंकि शहरों में विशेषकर भारत के महानगरों और मझोले शहरों में एक बड़ी आबादी है जो जितना कमाती है, उसमें से 50 फीसदी से ज्यादा मकान के किराये में खर्च कर देती है. हालांकि यह बात भी सही है कि हिंदुस्तान में आजादी के बाद साल दर साल शहरों में चाहे वे छोटे शहर हों या बड़े किराये में रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि साल 1961 में जब भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर यह सर्वेक्षण हुआ कि शहरों में रहने वाले कितने लोगों के अपने निजी मकान है, उस दौरान सिर्फ 46 फीसदी लोग ही शहरों में ऐसे थे, जिनके पास अपने मकान थे, वरना तो ज्यादातर लोग पीढ़ी दर पीढ़ी किराये के मकानों में रहा करते थे.

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