औरतें अकसर दफ्तरों में वेतन में भेदभाव व ग्लास सीलिंग की शिकायतें करती हैं. यह शिकायत वैसे वाजिब है क्योंकि एक तरह का सा काम करने वाली औरतों को पुरुषों के मुकाबले 20 से 40 फीसदी कम वेतन मिलता है और पदोन्नति के उन के अवसर आधे ही होते हैं. पर इस का सारा दोष दफ्तरों में पुरुष प्रधान माहौल को देना पूरा सच न होगा.
प्यू की एक शोध के अनुसार, मांओं की मरजी को ले कर ही भेदभाव बचपन से ही शुरू हो जाता है जहां औसतन बेटों को 13 डौलर साप्ताहिक जेबखर्च मिलता है, वहीं बेटियों को 6 डौलर ही मिलते हैं. लड़कियां इसी उम्र से कम में गुजारा करने की आदी हो जाती हैं और जीवन के हर क्षेत्र में इस भेदभाव को स्वीकार कर लेती हैं.
यह भेदभाव घरों में हर तरफ बिखरा होता है. बेटियों पर बाहर आनेजाने के समय, अपना वाहन खरीदने, घूमने जाने, टीवी, कंप्यूटर खरीदते समय यानी हर बात पर अंकुश लगाया जाता है. लड़कियों पर ये अंकुश मांएं ही ज्यादा लगाती हैं, क्योंकि ये बचपन में अपनी मां से सीख कर आई होती हैं. उन में न तो इस परंपरा को बदलने की इच्छा होती है न साहस. अगर पति कभी बेटी का पक्ष लेता नजर आए भी, तो मां ही बेटों के साथ खड़ी हो जाती हैं.
घर की अर्थव्यवस्था में जेबखर्च बहुत बड़ी बात नहीं है, पर यह भेदभाव गहराई तक मन में बैठ जाता है और लड़कियां कम में गुजारा करना सीख जाती हैं.
इस का दुष्परिणाम भी होता है. लड़कियां जब अपना पूरा मानसम्मान नहीं पातीं तो उन की उत्पादकता व कुशलता कम हो जाती है. इस कमी को कार्यक्षेत्र में औरतों की प्रवृत्ति कह कर टाल दिया जाता है और औरतों से भेदभाव करने में यह बहुत काम आता है.