भारत में नोवल कोरोनावायरस के संक्रमण का पहला मरीज 30 जनवरी को पता चला. 54 दिनों तक सरकार ने सीरियस जागरूकता अभियान नहीं चलाया. बस, 22 मार्च को 'जनता कर्फ्यू' लगाया था. फिर अचानक, 24 मार्च को घोषणा कर रात 12बजे से देशव्यापी लौकडाउन थोप दिया.
संदेह नहीं है कि कोरोना चिंता का विषय है, लेकिन क्या यह ख़तरा इतना बड़ा है कि 135 करोड़ आबादी वाले देश में देशव्यापी लौकडाउन को सही ठहराया जाए? भारत में लोग विभिन्न बीमारियों से भी तो मर रहे हैं.
जब रोज यह कहा जाता है कि भारत में कोरोना के चलते अब तक (.......) लोगों की मृत्यु हो चुकी है, तो यह क्यों नहीं बताया जाता कि इसी समयावधि में टी.बी., फ्लू, मलेरिया, डेंगू, मधुमेह, दिल का दौरा व दूसरी कई चिकित्सा समस्याओं से कितने भारतीयों की मृत्यु हुई?
सवाल यह भी, क्या कोई गणना की गई है कि कितने लोग (मज़दूर, प्रवासी वगैरह) भूख, क्षमता से कहीं अधिक पैदल चलने, रास्ते में बीमार होने और सड़क व ट्रेन हादसों से मरेंगे क्योंकि बिना योजना के थोपे गए लौकडाउन ने उन्हें उनकी आजीविका से वंचित कर दिया है? यदि यह संख्या कोरोना के कारण होने वाली मौतों से अधिक है, तो क्या लौकडाउन उचित है?
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कोरोना से संक्रमित होने वाले कितने प्रतिशत लोग इससे मर जाते हैं, और कितने ठीक हो जाते हैं? यदि केवल 2 फीसदी संक्रमित ही हैं जो इससे मर जाते हैं और बाक़ी ठीक हो जाते हैं, जैसा कि एक रिपोर्ट में कहा गया है, तो क्या लौकडाउन उचित है?
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