जब से ट्विटर और व्हाट्सऐप पर सरकारी अंकुश की बात हुई है, लोगों की जो भी मरजी हो इन सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों पर बकवास डालने की आदतों पर थोड़ा ठंडा पानी पड़ गया है. हमारे यहां ऐसे भक्तों की कमी नहीं जो अपनी जातिगत श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी को आंख मूंद कर समर्थन कर रहे थे और विरोधियों के बारे में हर तरह की अनापशनाप पोस्ट क्रिएट करने या फौरवर्ड करने में लगे थे. अब यह आधार ठंडा पड़ने लगा है.
सरकारी अंकुश इसलिए लगा है कि अब सरकारी प्रचार की पोल खोली जाने लगी है. कोविड से मरने वालों की गिनती जिस तरह से बढ़ी थी उस से भयभीत हो कर लोगों को पता लगने लगा कि मंदिर और हिंदूमुसलिम करने में जानें जाती हैं क्योंकि सरकार की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं. भक्त तो कम बदले पर जो सम झदार थे उन की पूछ बढ़ने लगी है और उन्हें जवाबी गालियां मिलनी बिलकुल बंद हो गई हैं.
जैसे पहले झूठ के बोलबाले ने सच को दबा दिया था वैसे ही सच का बोलबाला झूठ को दबा रहा है और सरकार को यह मंजूर नहीं.
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हमारे धर्मग्रंथ और धार्मिक मान्यताएं झूठ के महलों पर खड़ी हैं. कोईर् भी धार्मिक कहानी पढ़ लो झूठ से शुरू होती है और झूठ पर खत्म होती है और उसे ही आदर्श मान कर सरकार ने झूठ पर झूठ बोला जो अब ट्विटर और व्हाट्सऐप पर जम कर परोसा जा रहा है.
ट्विटर ने भाजपा के संबित पात्रा के ट्विट्स को मैनिपुलेटेड कह डाला तो सरकार अब महल्ले की सासों की सरदार बन कर उतर आई है और पढ़ीलिखी बहुओं का मुंह बंद करने की ठान ली है.