2017 में मध्य प्रदेश और 2018 में उत्तर प्रदेश के बाद इस साल खबर गुजरात से आई है कि गुजरात हाईकोर्ट और निचली अदालतों में वर्ग-4 यानी चपरासी की नौकरी के लिए 7 डाक्टर और 450 इंजीनियरों सहित 543 ग्रेजुएट और 119 पोस्टग्रेजुएट चुने गए. इस खबर के आते ही पहली आम प्रतिक्रिया यह हुई कि क्या जमाना आ गया है जो खासे पढ़ेलिखे युवा, जिन में डाक्टर भी शामिल हैं, चपरासी जैसी छोटी नौकरी करने के लिए मजबूर हो चले हैं. यह तो निहायत ही शर्म की बात है.
गौरतलब है कि चपरासी के पदों के लिए कोई 45 हजार ग्रेजुएट्स सहित 5,727 पोस्टग्रेजुएट और बीई पास लगभग 5 हजार युवाओं ने भी आवेदन दिया था. निश्चितरूप से यह गैरमामूली आंकड़ा है, लेकिन सोचने वालों ने एकतरफा सोचा कि देश की और शिक्षा व्यवस्था की हालत इतनी बुरी हो चली है कि कल तक चपरासी की जिस पोस्ट के लिए 5वीं, 8वीं और 10वीं पास युवा ही आवेदन देते थे, अब उस के लिए उच्चशिक्षित युवा भी शर्मोलिहाज छोड़ कर यह छोटी नौकरी करने को तैयार हैं. सो, ऐसी पढ़ाईलिखाई का फायदा क्या.
शर्म की असल वजह
जाने क्यों लोगों ने यह नहीं सोचा कि जो 7 डाक्टर इस पोस्ट के लिए चुने गए उन्होंने डाक्टरी करना गवारा क्यों नहीं किया. वे चाहते तो किसी भी कसबे या गांव में क्लीनिक या डिस्पैंसरी खोल कर प्रैक्टिस शुरू कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इसी तरह इंजीनियरों के लिए भी प्राइवेट कंपनियों में 20-25 हजार रुपए महीने वाली नौकरियों का टोटा बेरोजगारी बढ़ने के बाद भी नहीं है, लेकिन उन्होंने सरकारी चपरासी बनना मंजूर किया तो बजाय शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा के गिरते स्तर को कोसने के, इन युवाओं की मानसिकता पर भी विचार किया जाना चाहिए.
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