भारत के अटौर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में एक बहस के दौरान कहा कि भारत के न्यायालयों को औरतों के प्रति संवेदनशीलहोने की जरूरत है. उन्हें उन के अधिकार सम झने चाहिए. उन्होंने एक जज का यह आदेश हास्यास्पद पाया कि रेप की पीडि़ता को बलात्कारी राखी बांधे और फिल्म दिखाने ले जाए तो उसे जमानत पर छोड़ा जा सकता है.
एक और मामले में दोषी पाए गए आरोपी को चेन्नई उच्च न्यायालय ने इसलिए जमानत दे दी कि वह लेदे कर महिला के साथ मामला सुल झा सके.
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने खुद एक ऐसे वकील, जिस ने उन्नाव मामले को ले कर जनहित याचिका दायर की थी, से पूछा कि क्या वह उस पीडि़ता का रिश्तेदार या मित्र है, जो मामले में दखलंदाजी कर रहा है? सुप्रीम कोर्ट आर्थिक व राजनीतिक मामलों में जनहित याचिकाओं में ऐसे सवाल नहीं पूछता.
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असल बात यह है कि आज भी जो सत्ता में होता है या ताकतवर होता है, वह औरतों के सम्मान की चिंता नहीं करता. दरअसल, यह पट्टी घरों में ही पढ़ा दी जाती है और पुरुष तो इसे पढ़ाते हैं ही. पुरुषों को समर्थन देने के लिए मांएं, सासें, दादियां, मामियां भी आगे आ जाती हैं, मजबूरी में ही सही. पुरुष जाति में बचपन से ही यह कूटकूट कर भर दिया जाता है कि औरत का सम्मान कुछ नहीं होता, उसे पैर की जूती सम झ कहीं भी, कभी भी धकेला जा सकता है.
यह अच्छी बात है कि अब प्रतिक्रिया के रूप में जो औरतें मुखर हो जाती हैं वे हर तरह के आरोप लगाने की हिम्मत रखने लगी हैं. मगर डर यह है कि ये औरतें पुरुषों यानी पिताओं की शह पर ऐसा कर रही हैं.
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