गांवों में चाहे किसान, छोटे काश्तकार, छोटी जमीनों के मालिक अपनेआप को यादव, जाट, गूजर, अहीर, कुर्मी, कारीगर आदि पिछड़ी ओबीसी जाति का समझ कर कल तक अछूत कहे जाने वाले दलित एससीएसटी लोगों से ऊपर समझते हैं, हिंदू वर्ण व्यवस्था में सवर्णों के लिए दोनों बराबर से हैं. दोनों को सदियों से समाज में सब से निचली जगह मिली है. दोनों का पैसा लूटा गया है, दोनों की औरतों को उठाया गया है, दोनों को साथ बैठने तक नहीं दिया गया है.

1947 के बाद के भूमि सुधार कानूनों की वजह से बहुत से किसानों के पास वे जमीनें आ गई हैं जो पहले ऊंची जातियों के जमींदारों के पास हुआ करती थीं पर उन से सवर्णों का व्यवहार वैसा ही है. ओबीसी आरक्षण का विरोध सवर्णों ने किया था तो इसलिए कि वे नहीं चाहते थे कि मंडल आयोग के जरीए कल तक दास और सेवक बने पर समझदार थोड़ी हैसियत वाले लोग बराबरी की जगह लेने लगें.

आज भी आरक्षण में ज्यादा गुस्सा इन ओबीसी जमातों के साथ है, दलित जमातों के साथ नहीं. जो भी ऊंचे पद मिले हैं उन में दलितों को आरक्षण का फायदा आज भी कम है पर ओबीसी बड़ी तेजी से उन पदों पर आ ही नहीं गए, बराबर के कुशल साबित हो रहे हैं.

धर्म की देन इस भेदभाव को खत्म करना भारत की आर्थिक प्रगति के लिए पहली जरूरत है. जो भारतीय मजदूरी करने विदेश गए वहां वे बराबर के से स्तर पर हैं क्योंकि जैसे ही सामाजिक भेदभाव से छूट मिलती है जन्मजात ऊंचनीच का भेदभाव खत्म हो जाता है.

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