हमें हत्याओं के लिए आतंकवादियों की क्या जरूरत है? हमारे निहत्थे, निर्दोष, आम लोगों को मारने के लिए हमारी रेलें, हमारे अस्पताल, हमारे हिंदू मेले, सिनेमाघर और अब रेस्तरां ही काफी हैं. मुंबई के कमला मिल कंपाउंड में बने एक रेस्तरांबार में आग लगने से फंस गए लोगों में से 14 की तो मृत्यु हो चुकी है और लगभग 50 गरीब घायल हैं. पाकिस्तानियों को दोष देने से पहले हमें यह परखना होगा कि हम खुद अपनी सुरक्षा के प्रति कितने जागरूक हैं.
कमला मिल कंपाउंड में मकानों की छतों पर बने रेस्तराओं को नियम से बनाया गया था यह विवाद बेबुनियाद है. सरकारी अफसर कोई आसमान से टपके दूत नहीं हैं कि उन की मुहर लगने से हादसे ही नहीं होंगे. रेलों, बांधों, सड़कों, पुलों की दुर्घटनाएं साफ करती हैं कि सरकार जो कुछ चलाती है, वह उस के नियमों से बना होता है पर जानलेवा होता है.
आम नियोजक हादसों के प्रति कितना जागरूक है, यह देखना जरूरी है. ज्यादातर लोग कच्चे, अधपक्के मकानों भवनों में रहने के इतने आदी हो चुके हैं कि उन्हें नियमों और गैरनियमों की चिंता ही नहीं होती है.
मुंबई के बैलार्ड एस्टेट इलाके में 100-150 साल पुराने भवन हैं जो कब के पुनर्निर्मित हो जोने चाहिए थे पर किराएदारों के जमे रहने के कारण खाली नहीं हो पा रहे. मुंबई शहर की अधिकतम पटरियों पर खोमचे लगे हैं और सड़क के किनारे पार्किंग बनी है. आम जनता मजे में सड़क के बीचोंबीच चलती है और वाहनों से छूती चलती है.
क्या सड़क पर चलने के लिए भी मुंबई म्यूनिसिपल कौरपोरेशन से अनुमति लेनी होगी? यह काम जनता को खुद करना होगा.
वन अबब रेस्तरां में जाने वाले कोई बेचारे गरीब नहीं थे कि सलमान खान की गाड़ी से कुचले जाएं. वे मोटा पैसा खर्च कर के आए थे और आलीशान बने एअरकंडीशंड रेस्तरां में बैठे थे. उन्हें अपनी सुरक्षा का खयाल नहीं था क्या? क्यों हम भेड़चाल में चलते हैं और फिर जोखिम लेते हैं?
सुरक्षा नियमों या नियमों के पालन से नहीं आती. सुरक्षा का वैध और अवैध निर्माण से भी कोई मतलब नहीं है. अपनी जान की सुरक्षा के प्रति सतर्क रहना हरेक का अपना काम है पर जब शहर की दोतिहाई आबादी हर रोज 1 मिनट रुकने वाली लोकल ट्रेन में घुसने की और निकलने की अभ्यस्त हो तो उस की सुरक्षा ग्रंथि कब की कुंद हो चुकी होती है.
कमला मिल कंपाउंड की तो छोडि़ए, मुंबई का तो चप्पाचप्पा असुरक्षित है. हर घर, हर स्कूल, हर दफ्तर खतरे में है. पर फिर भी लोग जी रहे हैं, जान हथेली पर रख कर, क्योंकि जान तो है, मरने की सोचने की भी मुंबई में किसी को फुरसत नहीं.