विवाह संबंध बने रहें, यह जिम्मेदारी अब औरतों से धीरेधीरे हटा कर पतियों के सिर मढ़ी जा रही है. विवाह कानूनों और अदालतों के फैसलों में निरंतर पत्नियों को बेचारा मान कर उन्हें कुछ जरूरत से ज्यादा पति की आय व संपत्ति में हिस्सा दे कर अपरोक्ष रूप से झगड़ों के लिए उकसाया जा रहा है.
हाल ही में दिल्ली के सैशन जज ने एक पत्नी को अलग रहने पर डेढ़ लाख महीने का मुआवजा दिलाया है जबकि पत्नी अच्छी पढ़ीलिखी, युवा व काम करने के लायक थी. अदालत का कहना था कि पत्नी को न केवल आर्थिक स्तर पर वही मिलना चाहिए था जो विवाह के चलते मिलता था वरन उसे अकेले रहने का मुआवजा भी मिलना चाहिए.
विवाह टूटने पर पत्नियां बेघरबार, फटेहाल न हो जाएं यह सिद्धांत तो ठीक है पर इस चक्कर में पति आर्थिक गुलाम हो जाए यह कानूनी व्यवस्था भी ठीक नहीं.
आज के युग में पतिपत्नी मनमरजी से ऊंचनीच देख कर विवाह करते हैं. दोनों में विवाह के दौरान बराबरी का स्तर बना रहता है. चाहे संपत्ति पतियों के नाम हो पर असल में पत्नियों का पूरा हक रहता है. अगर वे इस विवाह के अनुबंध को तोड़ें तो नुकसान दोनों का होना चाहिए, केवल पति ही इसे तोड़ने का जिम्मेदार न हो.
आज औरतों को पूरी शिक्षा मिल रही है. अधिकतर लड़कियां विवाहपूर्व काम करने का अवसर भी पा रही हैं. ज्यादातर घरों में पतिपत्नी दोनों ही नौकरी करने लगे हैं और बच्चों के बावजूद औरतें घर को आर्थिक योगदान देती रहती हैं. ऐसी पत्नियां पतियों को जीवन भर ऐलीमनी या मैंटेनैंस की आर्थिक गुलाम बना कर रखें यह व्यवस्था विवाह संस्था को तोड़ सकती है.