मर्दानगी शब्द भारतीय पुरुषों के लिए शान की बात होती है. वे सब कुछ खो सकते हैं परंतु अपनी मर्दानगी को नहीं. अपनी पत्नी का सहयोग करने से उन की इस तथाकथित मर्दानगी को बट्टा लग जाता है तथा पत्नी पर रोब गांठने से उन की मर्दानगी में चारचांद लगते हैं.
वे प्यार में अपनी जान देने तक की बात तो कर सकते हैं, परंतु पत्नी के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए स्वयं नसबंदी करवाने के बारे में सोच भी नहीं सकते जबकि चिकित्सा विज्ञान आज इतनी तरक्की कर चुका है कि दर्दरहित यह प्रक्रिया कुछ ही मिनटों में समाप्त हो जाती है.
इस के बावजूद हजार में से कोई 1 पुरुष ही है जो नसबंदी के लिए सहमत होता है और वह भी चोरीछिपे, रिश्तेदारों एवं समाज को बताए बिना. जबकि महिला नसबंदी खुले में शिविर लगा कर की जाती है. सरकार भी महिला नसबंदी का ही ज्यादा प्रचार करवाती है. नसबंदी करवाने के लिए महिलाओं को रुपए भी मिलते हैं.
ग्रामीण संस्था ‘आशा’ भी महिलाओं को ही नसबंदी के फायदे एवं नुकसान की जानकारी देती है. कुछ गांवों में तो टारगेट पूरा करने के लिए ट्रकों में भरभर कर महिलाओं को शिविरों में लाया जाता है. ये पैसों के लालच में यहां आ तो जाती हैं परंतु उचित देखभाल न होने के कारण कई बार हादसे का भी शिकार हो जाती हैं.
हमारे देश की यह विडंबना है कि परिवार नियोजन का सारा दारोमदार महिलाओं पर ही छोड़ दिया गया है. महिलाएं भी पुरुषों को कंडोम इस्तेमाल करने के लिए नहीं कह सकती हैं परंतु स्वयं बिना सोचेसमझे इस्तेमाल करने से नहीं हिचकतीं. बचपन से त्याग और कर्तव्य पालन की घुट्टी जो कूटकूट कर पिलाई जाती है उन्हें.