आधुनिक समाज में जातिवादी बातें बेमानी लगती हैं. लोगों की जीवनशैली और विचारधारा में परिवर्तन आया है. नेताओं की इन बातों और पाठ्यपुस्तकों से ऐसा लगता भी है, लेकिन हकीकत हूबहू ऐसी नहीं है. परदे के पीछे पुरानी तसवीर उभरती नजर आती है.
सरकारी नौकरी और ओहदे आज भी लोगों के आकर्षण का केंद्र हैं. बाहरी समाज से ज्यादा जातिवाद, भाषावाद और भाईभतीजावाद सरकारी कर्मचारियों की सोसाइटी में देखने को मिलता है. सरकारी नौकरी व तबादले के कारण कर्मचारियों की आवासीय कालोनी ही उन का अपना परिवार होती हैं. किंतु जब आप इस सोसाइटी का हिस्सा बनते हैं तो आप के सामने इस के कई विकृत रंग नजर आते हैं. सरकारी आवास ज्यादातर शहरों व गांवों के बाहर बने होते हैं. आवास कर्मचारियों के पदानुसार तय होते हैं. बड़े शहरों में तो ये आवास फ्लैटनुमा होते हैं. एक बिल्ंिडग में रहने के कारण लोग नेमप्लेट पर लगे नामों से एकदूसरे को जानते हों किंतु मेलमिलाप बहुत दूर की बात है. घरों के बंद दरवाजे उन के दिलों को भी बंद रखते हैं. महीनों में कभी कोई सीढ़ी पर नजर आ गया तो वह या तो मुसकराएगा या फिर यों ही निकल जाएगा, जैसे कोई अजनबी हो. एक बार ऐसा ही किस्सा देखने को मिला. आसपड़ोस में रहने वाले 2 अफसर दूसरे शहर में किसी कार्यक्रम में मिले और बातचीत के बाद उन्हें मालूम हुआ कि हम दोनों पड़ोसी हैं.
हालांकि, चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के परिवारों में थोड़ाबहुत मेलजोल दिखाई देता है. ऐसे परिवेश में प्यारमुहब्बत तो ठीक है लेकिन ज्यादातर महिलाएं या परिवार ताकझांक के काम में लिप्त रहते हैं. किस के यहां कौन आया, कौन गया. परिवार में कौनकौन हैं, क्या हो रहा है. कब अवकाश लिया और क्या किया. जब तक सामने वाले का छिलका न उतार दें, चैन ही नहीं मिलता. अलगअलग लोगों की भिन्नभिन्न मानसिकता का स्वरूप यहां देखने को मिलता है.
एकदूसरे से बचना, प्राइवेसी को संभालना मुख्य मुद्दा होता है. अफसरों का मनमुटाव उन के परिवार में भी साफ झलकता है. एकदूसरे से निश्चित दूरी बनाए रखना आम बात है. एक समस्या ऐसी है जिस का सामना सोसाइटी में रहने आए हर नए परिवार को करना पड़ता है. नई जगह रोजमर्रा की चीजें दूध, पेपर, पानी, बाई जैसी आम जरूरतों के लिए स्वयं खोजखबर लेनी पड़ती है. पड़ोस में रहने वाले यह जानकारी देना तो दूर की बात है वे पानी के लिए भी पूछने से बचते हैं.
कानाफूसी की लत सरकारी कर्मचारियों के परिवारों में इस तरह की मानसिकता सर्वोपरि होती है. औफिस में सहकर्मियों के साथ संबंधों का असर उन के परिवारों पर भी पड़ता है. सहकर्मी का यदि किसी सहकर्मी से मेलमिलाप न हुआ तो उस के पारिवारिक संबंध बनते हुए भी बिगड़ जाते हैं. इन की पत्नियों के साधारणतया वार्त्तालाप के विषय ही यही होते हैं – ‘हमारे साहब ने यह काम किया,’ ‘हमारे साहब बहुत काम करते हैं,’ ‘ऐसा काम आया,’ ‘औफिस में किस ने क्या कहा’, ‘कहां क्या आया’ वगैरह. जैसे सिर्फ उन के पति ही काम करते हैं, बाकी तो आरामतलबी के लिए दफ्तर जाते हैं.
सरकारी अफसरों की पत्नियां अपने खुद के व्यक्तित्व पर नहीं बल्कि अपने पति के पदों को जीती हैं. उन में एकदूसरे से बड़ा दिखने की होड़ लगी रहती है. जिन के पति ओहदे में बड़े हैं, वे अपने पति के मातहत व सहकर्मियों के परिवारों से आवभगत व चमचागीरी की उम्मीद करती हैं. खुद को ऊंचा बता कर दूसरों को छोटा दर्शाना ऐसी महिलाओं की आदत होती है. पुरुषों के पदों व स्तर के अनुसार महिलाएं भी अपनाअपना दल तैयार करती हैं. यदि किसी नए परिवार ने किसी एक दल से वार्त्ता या मेलमिलाप किया तो अन्य दल के लोग उन से दूरी बना लेते हैं. जिसे समझना नए परिवारों के लिए मुश्किल होता है कि आखिर उन से क्या हो गया. कुछ ऐसे परिवार भी होते हैं कि जिन का मतलब सिर्फ कुरसी से होता है. जो आगे बढ़ने की सीढ़ी बने, उस की चमचागीरी करो.
सरकारी सोसाइटियों में जातिवाद व भाईभतीजावाद का बोलबाला होता है. बच्चों का बचपन इसी परिवेश में रह कर कहीं खो सा जाता है. वे जो देखते हैं, उसे ही आगे बढ़ाते हैं. ऐसे में भविष्य में उन के सामाजिक होने में दिक्कत आती है. यहां विजातीय परिवारों को मनमुटाव का सामना सब से ज्यादा करना पड़ता है. सजातीय परिवारों में यदि कोई कार्यक्रम होता है तो भाईबंधु बढ़चढ़
कर पैसा जमा कर बड़ा गिफ्ट देते हैं. भले ही किसी विजातीय का उन से संबंध न हो, पर बुलाए जाने पर भी विनम्र और विजातीय परिवार को सामाजिक मजबूरी के कारण शामिल होना पड़ता है. जातिवाद का संस्कार
हमारे एक हिंदीभाषी मित्र हैं. उन के ज्यादातर साथी मराठीभाषी थे. एक जगह वे 3 वर्ष रहे. उन के एक सहकर्मी की बेटी की शादी थी. सभी औफिस वालों ने मिल कर हारमोनियम व वाशिंग मशीन गिफ्ट की. परिवार की महिलाओं ने भी पैसे जमा कर साड़ी सैट दिए. हालांकि उन में कुछ परिवार जातिभाई थे लेकिन हमारे मित्र सब से हमेशा मीठी बातें करते व सभी परिवारों को अपना समझते रहे. प्रतिवर्ष होने वाले तबादले में पुरुष व महिलावर्ग ने उन्हें अलगअलग सैंड औफ दिया. उन का अच्छे से सत्कार किया. किंतु जब एक बार प्रमोशन पर उन का तबादला आया तो लोगों ने पल्ला झाड़ लिया. 10 दिनों बाद जब उन के किसी अपने का तबादला हुआ तो वही प्रथा फिर कायम हो गई. यहां तात्पर्य सैंड औफ या गिफ्ट से नहीं है, बल्कि लोगों की मानसिकता से है, जो भेदभाव को बढ़ावा देती है. ऐसे परिवेश में विजातीय व विभाषी लोग कट कर रहना ही पसंद करते हैं. जातिवाद व भाषावाद का जहर धीरेधीरे मन को ग्रसित करने लगता है. अपनी मेहनत व काबिलीयत के दम पर उच्च पद पर आसीन होने वाले प्रकाश चंद्र तबादले के बाद जलगांव पहुंचे. हिंदीभाषी प्रकाश चंद्र के अन्य सहकर्मी मराठी, मराठी ब्राह्मण, मराठा, एकदो अन्य जाति के थे. सभी के आवास एक ही सोसाइटी में थे. छलकपट से परे प्रकाश चंद्र से सहकर्मियों का अच्छा व्यवहार था, जो क्षणभंगुर निकला. हुआ यों कि जिले के जिलाधीश तबादले के बाद वहां आए. प्रकाश चंद्र के गुरु व ट्रेनर होने के कारण उन का व्यवहार उन के साथ स्नेहभरा था. उन्होंने उन की काबिलीयत देखते हुए उन्हें प्रमुख कार्यक्रम के कार्य प्रबंधन का कार्य सौंप दिया जो अन्य लोगों को नागवार गुजरा.
साम, दाम, दंड, भेद की नीति तोड़ो और जोड़ो की नीति पर कार्य करने लगे. लोगों ने अपनी जाति व भाषानुसार दंभ दिखाना व तिरस्कार करना शुरू कर दिया. औफिस में किसी तरह काम में अड़ंगा लगाना, परिवार की महिलाओं द्वारा सार्वजनिक कार्यक्रमों में उन के परिवार को नजरअंदाज करना व तंज कसना आदि शुरू कर दिया. अपने जातिभाई लोगों को अच्छा बना कर प्रमुख के सामने प्रस्तुत करना जैसी ओछी हरकतों का असर मनमुटाव का सब से बड़ा कारण होता है. एक सहकर्मी, जो रिटायर होने वाले थे लेकिन अपने सेवाकाल में कभी प्रमोशन नहीं पा सके, सार्वजनिक वार्त्ता में बोले कि हमारे देश में बाहर के लोग नौकरियों में कटोरा ले कर आ गए. देश से उन का मतलब प्रदेश ही था.
ऐसी विकृत मानसिकता को क्या कहें. मानसिक प्रताड़ना की हदें तब पार होती हैं जब बच्चों का भी मेलजोल बंद कराया जाता है. अच्छे संबंध भी जातिवाद व भाषावाद के कारण मनमुटाव में बदल जाते हैं. दूषित सोच
हाल ही में महेंद्र अपने बेटेबेटी को उच्चशिक्षा दिलाने के लिए मुंबई तबादला ले कर आए. इत्तफाक से वहां कुछ सहकर्मी उन के ही डिपार्टमैंट के निकले. सोचा, पुरानी पहचान है, अच्छी जमेगी. घर में आते ही सब से पहले लोगों की नजर इस बात पर थी कि उन के घर में क्याक्या सामान आया है. कभी कोई डोरबैल बजती तो पड़ोसियों की निगाहें परदे के पीछे से खिड़कीदरवाजे पर चिपकी मिलतीं, कौन, क्या, कैसे. ‘अरे, इन के यहां कितना सामान है,’ एक ही पगार वाले होने के बावजूद इस तरह की वार्त्ता गरमाती रहती है.
कालेज जाने में असुविधा होने से महेंद्र को बेटी को होस्टल में रखने का निर्णय लेना पड़ा. लेकिन यह बात किसी को जाहिर नहीं की. पारिवारिक समस्या से वे खुद ही जूझ रहे थे. लोगों ने सच जानने के लिए उन का जीना दूभर कर दिया. जातिवाद का प्रचंडस्वरूप तब देखने को मिलता है जब वही कार्य उन के अपने लोग करते हैं. विजातीय लोगों को इस का खमियाजा भुगतना पड़ता है, जिस का सरोकार उन के कार्य से भी नहीं होता है, लेकिन बातों की गरमाहट का बाजार व राजनीतिकरण होता रहता है.
तबादले और शारीरिक व मानसिक थकान के कारण कुछ दिनों के लिए महेंद्र ने दफ्तर से पूर्ण अवकाश ले लिया कि घर पर ही आराम करेंगे, गांव नहीं जाएंगे. चूंकि दीवाली की भी छुट्टियां थीं, दफ्तर का हर एक दिन का चार्ज किसी न किसी के पास रहता था. महेंद्र का चार्ज उन के तथाकथित मित्र पूरन के पास चला गया. पूरन को कुलबुलाहट होने लगी. शाम को तिलमिलाते हुए वे महेंद्र के घर पर टपक गए, क्यों छुट्टी ली. छुट्टी ले कर घर पर बैठे हो. हमारे ऊपर कितना काम है. वे बाल की खाल निकालने लगे. अवकाश के बाद दफ्तर में जातिवाद ने अपना जहर उगल दिया. साथ ही परिजनों का मनमुटाव भी प्रखर होने लगा. मिसेज महेंद्र ने कई प्रयत्न किए किंतु मिसेस पूरन की गर्मजोशी गायब थी.
सरकारी सोसाइटी में त्योहार भी सरकारी नजर आते हैं. सजातीय भाईबंधु फिर भी थोड़ाबहुत मेलमिलाप कर लेते हैं, किंतु दूसरे लोगों के साथ उन की गर्मजोशी कम ही नजर आती है. बड़े शहरों में जहां फ्लैटनुमा आवास होते हैं वहां त्योहारों की रौनक ज्यादा गायब रहती है. कुछ लोग दीवाली के
4-5 दिनों के अवकाश में बाहर चले जाते हैं. जो शेष रहते हैं, वे जगमगाते फ्लैटों में कैद ही रहते हैं. शहरों में जहां हर जगह रौनक होती है वहीं दूसरी ओर इन सोसाइटीज में चहलपहल भी नहीं होती है. एक ही जगह साथ रहने वाले लोगों का एकदूसरे से अपरिचित सा व्यवहार सोसाइटी को हृदयविहीन बनाता है. यहां भाषावाद, जातिवाद का राजनीतिकरण चरमोत्कर्ष पर होता है. यह ऐसा जहर है जो धीरेधीरे सामाजिक व्यवस्था को अंदर से खोखला कर रहा है.