21 नवंबर, 2009 को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि अगर गंदगी का कोई नोबेल पुरस्कार हो तो वह भारत को मिलना चाहिए. इस से पहले गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा था कि दिल्ली वाले सुधर जाएं और सलीका सीखें. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी दूसरे राज्यों, खासकर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए लोगों के बारे में अस्वच्छता फैलाने को ले कर टिप्पणी की थी जिस का विरोध हुआ था.

इन राजनीतिबाजों की ये टिप्पणियां लोगों द्वारा शहरों में फैलाई जाने वाली गंदगी और सिविक सेंस को ले कर हैं. यह सही है कि भारत में गंदगी का साम्राज्य है. गांवों, कसबों, शहरों में गंदगी के अंबार लगे हैं. यहां तक कि पर्यटन और धार्मिक स्थल तो सब से ज्यादा गंदे नजर आते हैं. जब तक कोई महामारी, बीमारी न फैले, सफाई की ओर सरकारी अमले से ले कर आम जन तक का ध्यान नहीं जाता.

भारत दुनिया का सब से बड़ा कचरा घर बनता जा रहा है. कुछ समय पहले हुए एक सर्वे में बताया गया था कि रहने के हिसाब से दिल्ली विश्व के सब से गंदे शहरों में से एक है. दुनिया के 215 शहरों में किए गए सर्वे के अनुसार दिल्ली 177वें नंबर पर है. मुंबई, चेन्नई और बंगलौर कुछ ऊपर बताए गए. मुंबई 160वें, बंगलौर 170वें और चेन्नई 175वें स्थान पर है. ज्यूरिख और विएना क्रमश: 1 व 2 नंबर पर हैं. कनाडा और अमेरिका के कैलगरी व होनोलूलू साफ शहरों में रहे, मैक्सिको को सब से गंदा बताया गया. विश्व की सब से बड़ी मानव संसाधन सलाहकार संस्था द्वारा यह सर्वे 2002 में किया गया था लेकिन एक ताजा सर्वे में दिल्ली और मुंबई को विश्व के 25 गंदे शहरों की सूची में शामिल किया गया है.

सर्वे में इन शहरों की गंदगी हटाने के लिए सामान्य आधारभूत ढांचे की जरूरत बताई गई है. कहा गया है कि सफाई का मौजूदा ढांचा पर्याप्त नहीं है, सिवेज सिस्टम ठीक नहीं हैं.

गंदगी का आलम यह है कि देश में हर साल कहीं न कहीं कभी डेंगू, कभी प्लेग, कभी स्वाइन फ्लू तो कभी बर्ड फ्लू जैसी बीमारियां फैलने की खबरें आती हैं तो लोगों में भय, आशंका व अफरातफरी फैली रहती है. स्थानीय निकायों से ले कर राज्य और केंद्र सरकारें हिल जाती हैं. साफसफाई के लिए अतिरिक्त बजट पारित होते हैं, शहरों में विशेष सफाई मुहिम छेड़ी जाती है, स्वच्छता के नएनए नारे दिए जाते हैं. लातूर, सूरत, पुणे, दिल्ली और जयपुर जैसे शहर महामारियों की आशंका से घबराए, सफाई में जुटे नजर आते हैं पर होता कुछ नहीं.

हमारे यहां शहरों, कसबों की सफाई के लिए अलगअलग सरकारी, निजी संस्थाएं हैं. छोटे शहरों, कसबों में नगरपालिकाएं, बड़े शहरों व महानगरों में नगर निगम के हाथ में सफाई का जिम्मा रहता है. गांवों में तो अभी तक पंचायतों के जरिए ऐसा सिस्टम है ही नहीं. इसीलिए ज्यादातर गांवों में गलियों, सड़कों की सफाई होती ही नहीं है. लोगों ने अपनेअपने कूड़ों के लिए स्थान बना रखे हैं. अधिकतर गांवों के घरों में पक्के टायलेट और सिवेज की व्यवस्था भी नहीं है, जिस से समूचे गांव दिनरात बदबू मारते रहते हैं.

गंदगी के आंकड़ों पर जरा गौर करें तो हालात भयावह दिखते हैं. मुंबई की एक अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि यहां प्रतिदिन 8 हजार टन कूड़ा पैदा होता है लेकिन हमारे हिसाब से यह मात्रा बहुत ज्यादा है. रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि प्रति व्यक्ति रोजाना औसत 500 ग्राम कूड़ा उत्पन्न करता है. अमीर आदमी ज्यादा कूड़ा यानी 650 ग्राम और गरीब 300 ग्राम कूड़े के लिए जिम्मेदार है. अगर 5 सदस्यों का एक परिवार है तो प्रतिदिन ढाई किलो कचरा एक घर से निकलता है. इस में से करीब आधा कूड़ा डिस्पोजल होता है. बाकी वातावरण को दूषित करता रहता है. कहा गया है कि इस कूड़े को ढोने के लिए 140 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं.

देश में 30 फीसदी लोग स्लम में गुजरबसर करते हैं. यहां गंदगी की भरमार रहती है. कई शहरों, कसबों में तो महीने में 1 या 2 बार सफाई होती है तो कहीं हफ्ते में 1 बार. ज्यादातर कसबों और शहरों का कचरा और गंदे पानी की निकासी शहर के बाहरी हिस्से में की जाती है इसलिए शहर में प्रवेश करने वालों को बदबू का सामना करना पड़ता है. जयपुर, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, गुड़गांव जैसे शहरों की गिनती सब से ऊपर होती है.

विदेशियों की नजर में तो भारत गरीबों का देश है और एक डस्टबिन है.

कुछ समय पहले ब्रिटेन की महारानी जब दिल्ली आई थीं तो उन्होंने जा कर कहा था कि दिल्ली बहुत गंदा शहर है. समयसमय पर विदेशी लोग भारत आते हैं तो वह देश की गरीबी और गंदगी को ले कर मजाक उड़ाते हैं, इसीलिए देश की छवि भिखारियों, मदारियों, सपेरों के देश की बनी हुई है. इस से दुनिया भर में भारत की बड़ी तौहीन होती है. विश्व मंच पर हमारे नेताओं को शर्मसार होना पड़ता है.

अब हालांकि देश विश्व की आर्थिक शक्तियों से होड़ ले रहा है फिर भी सामाजिक ढर्रा बदल नहीं पाया है.

दरअसल भारत में गंदगी का सब से बड़ा कारण यहां की सदियों पुरानी सामाजिक जातिगत व्यवस्था है. यहां सदियों से शारीरिक व भौतिक स्वच्छता के बजाय सामाजिक वर्गों की स्वच्छता सर्वोपरि मानी गई और उस की सामाजिक मान्यता रही है. व्यक्ति वर्ण, जाति से स्वच्छ माना जाता रहा है. चूंकि भारत एक हिंदू बाहुल्य देश है लिहाजा यहां सैकड़ों सालों से सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक कामकाज में हिंदू धर्म की व्यवस्था का खासा दखल है.

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार समाज को 4 वर्णों में बांटा गया. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. इन चारों को अपने कामों से हट कर अलग जाने पर पाबंदियां लगाई गईं. उल्लंघन करने पर सजा का प्रावधान किया गया. ब्राह्मण  का काम पढ़ना- पढ़ाना, पूजापाठ, यज्ञ, दान लेना, क्षत्रिय का काम युद्ध करना, वैश्य का काम कृषि व व्यापार करना तथा शूद्र के लिए औरों की सेवा, सफाई व मजदूरी करना तय किया गया.

ग्रंथों में लिखा है, शूद्र केवल दूसरों का सेवक है, इस के अतिरिक्त उस का कोई अधिकार नहीं है.

धर्मशास्त्रों में यह विधान है कि हर वर्ण अपनेअपने कर्म को निष्ठापूर्वक करेगा तो उसे स्वर्ग मिलेगा और यदि दूसरे के कर्मों का अतिक्रमण करेगा तो वह नरक का भागी होगा लेकिन इस नियम का अपवाद भी बताया गया है. उस में शूद्र वाले काम न करने की हिदायत है. कहा गया है कि ब्राह्मण अध्यापन या यज्ञादि से जीविका न चला सके तो वह वैश्यवृत्ति का आश्रय ले सकता है. आपत्ति आ जाए तो तलवार उठा कर क्षत्रियों की वृत्ति से भी अपना काम चला सकता है परंतु किसी भी अवस्था में नीचों की सेवा, जिसे श्वानवृत्ति कहते हैं, न करे. इसी तरह क्षत्रिय भी प्रजापालन आदि द्वारा अपनी जीविका न चला सके तो वैश्यवृत्ति, व्यापार आदि कर ले. बहुत बड़ी आफत हो तो शिकार के द्वारा या विद्यार्थियों को पढ़ा कर अपनी आपत्ति के दिन काट ले मगर नीचों की वृत्ति न अपनाए. इस व्यवस्था को हम ईश्वरीय विधान मानते रहे हैं.

सफाई व्यवस्था में हमारी सोच अभी तक वर्णव्यवस्था वाली है.  इन चारों वर्णों में भी हजारों जातियां, उपजातियां बनाई गईं. व्यवसाय से ले कर रहने, खानेपीने, पहनने- ओढ़ने, विवाहशादी आदि तमाम बातों के लिए नियमकायदे निर्धारित किए गए.

अब धीरेधीरे चारों वर्णों के काम परस्पर करने लगे. मसलन, ब्राह्मण अब सेना में हैं, क्षत्रिय व्यापार कर रहे हैं, वैश्य पढ़ाने का व्यवसाय कर रहे हैं लेकिन शूद्रों के हिस्से वाले सफाई के काम से दूसरी ऊंची जातियां अभी भी दूर हैं. हालांकि शूद्र जातियां पढ़लिख कर ऊंची जातियों वाली सेवा करने लगी हैं, ऊंचीऊंची कुरसियों पर बैठने लगी हैं पर ऊंची जातियों के घरों के टायलेट, गली, सड़कों की साफसफाई का जिम्मा उन्हीं के कंधों पर है.

आज शहरों में म्युनिसिपलटी में निचली जातियों के लोग कूड़ा उठाने, सफाई करने का काम करते हैं. पब्लिक सेनिटेशन सिस्टम अछूतों के लिए है. नाई बाल काटने का, धोबी गंदे कपड़े धोने का काम करते हैं. मुंबई में 1,800 किलोमीटर सड़कें हैं. बीएमसी कर्मचारियों द्वारा 1,200 किलोमीटर सड़क की सफाई की जाती है. बाकी 600 किलोमीटर सड़क की सफाई आउट- सोर्सिंग द्वारा कराई जाती है.

अब हो यह रहा है कि कसबों, शहरों में सफाई करने वाले नीची जाति के हैं तो सफाई कराने वाले ज्यादातर सुपरवाइजर और ठेकेदार ऊंची जाति के हैं. सुपरवाइजर सोचता है सफाई मैं क्यों करवाऊं, क्योंकि यह उस का जातिगत पेशा नहीं है. जिस का पेशा है वह ऊंची जाति के घरों के पास कूड़े का ढेर लगा देगा या ऊंची जाति का सुपरवाइजर निचली, मध्यम महल्लों, बस्तियों में सफाई ही नहीं कराएगा क्योंकि निचले लोगों की तो नियति गंदी जगहों में रहने की है. ऊंची जातियों का जूठा खाना, पुराने कपड़े पहनना और गंदी जगहों पर रहना उन के पूर्व जन्मों का फल है.

हाल ही में दिल्ली नगर निगम के गायब 22 हजार सफाई कर्मचारियों का रहस्य यही है कि कागजी आंकड़ों में तो सफाई दिखा दी जाए पर हकीकत में सफाई न हो.

ऊंची जाति के लोगों की सोच है कि अपनी गंदगी भी मैं क्यों साफ करूं. हमारी गंदगी की सफाई करने का काम निचली जातियों का है. गंदगी फैलाना मेरा अधिकार है. अब कूड़ाकचरा उठाना, सफाई करना निचली जाति के व्यक्ति की मरजी पर है. उस ने अब ऊंची जातियों से डरना कम कर दिया है. अपना हक मांगने लगा है.

कुछ साल पहले दिल्ली को साफ रखने के लिए तत्कालीन उपराज्यपाल ने नारा दिया था, मेरी दिल्ली, मेरी शान. स्वाइन फ्लू फैलने के बाद पुणे म्युनिसिपल कारपोरेशन ने नारा दिया, फ्रीडम फ्रौम गारबेज. इन के अलावा कूड़ा मुक्त शहर, क्लीन सिटी, ग्रीन सिटी, डस्टबिन फ्री टाउन, हमारा शहर, स्वच्छ शहर जैसे नारे दिए जाते हैं. कभी पेरिस तो कभी स्विट्जरलैंड बनाने की बातें की जाती हैं. लेकिन भारत नरक में तब्दील होता जा रहा है.

दिल्ली जैसे शहरों में फ्लाईओवर, चौड़ी चमचमाती सड़कें, मेट्रो ट्रेनें, गगनचुंबी इमारतें तो विकास की कहानी बयान कर रही हैं पर भारत के नेताओं की चिंता यह है कि इस साल दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेल होने जा रहे हैं, दुनिया भर के लोग यहां जुटेंगे और उन के आगे अगर गंदगी की सचाई उघड़ गई तो बड़ी फजीहत होगी. गंदगी और विकास ये दोनों बातें भारत मेंविरोधाभास उत्पन्न कर रही हैं.

विकसित देश का एक राष्ट्रपति अपने घर में अपना टायलेट खुद साफ कर सकता है पर हमारे यहां का नौकर, चपरासी भी सफाई वाले का इंतजार करता है क्योंकि हम अपनी सफाई खुद नहीं कर सकते. हम इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि छोटा काम करने और सफाई का काम हमारा नहीं, औरों का है, वाली सोच की गंदगी हमारे दिमाग में गहरी जड़ें जमाए हुए है.

अत: हमें ऊपरी सफाई की नहीं, पहले भेदभाव वाली सोच की सफाई करनी होगी. जो गाय, बंदर और चूहों पर ज्यादा ध्यान देते हैं वे गहरे धार्मिक अंधेरे में हैं. ये धार्मिक अंधविश्वासी लोग इन गाय, बंदर, चूहे जैसे देवताओं के बंधक बने हुए हैं. धार्मिक शहर, तीर्थस्थल और पर्यटन स्थल तो इसीलिए सब से गंदे हैं. यहां आ कर अनपढ़, पढ़ालिखा, अमीरगरीब, मर्दऔरत हर कोई गंदगी फैला रहा है. धार्मिक दृष्टि से हमारी नदियां हमारी धार्मिक, जातिगत सोच के कारण मैली होती जा रही हैं.

धार्मिक लोग अपनी रसोई, पूजाघरों को साफसुथरा रखना चाहते हैं, खुद साफ करते हैं. किसी दूसरे को पूजाघर और रसोई में घुसने नहीं देते पर टायलट की सफाई और के जिम्मे है. यानी रिच्युअल प्योरिटी ब्राह्मण के लिए और सेनिटेशन प्योरिटी शूद्र के लिए है. देश में गंदगी इसी सामाजिक भेदभाव वाली व्यवस्था के कारण है.

हमारी शिक्षा भी गंदगी को बढ़ावा देने वाली है. देश में बीमारियां, महामारियां, सामाजिक भेदभाव की वजह से फैलती हैं. भेदभाव वाली इस व्यवस्था के जो पोषक हैं वे नहीं चाहते कि बदलाव हो, क्योंकि इस से उन का अपना स्वार्थ जुड़ा हुआ है. देश में गंदगी के लिए हमारी धार्मिक सामाजिक व्यवस्था जिम्मेदार है.

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