सुप्रीम कोर्ट ने एक नए फैसले में मरने का हक भी बुनियादी हकों में शामिल कर लिया है. इस का मतलब है कि अब न तो आत्महत्या एक जुर्म रहेगा और न ही बीमार पड़े हिलनेडुलने लायक न रहे आदमियों को मरने देने पर डाक्टरों को कातिल माना जाएगा. इस नए हक के बारे में बहुतकुछ अभी धुंधला है पर धीरेधीरे कानून और नियम बनने लगेंगे तो साफ हो जाएगा कि कब कौन सा मरना सम्मानजनक माना जाएगा और कब डाक्टर मरीज को जहालत व जिल्लत की जिंदगी से आसानी से छुटकारा दिला सकेंगे.
पहले कानून साफ था कि अस्पताल, डाक्टर, मातापिता या बच्चे किसी बीमार को अपनेआप मरने नहीं दे सकते थे और जहां तक कोशिश हो सके उसे बचाने के लिए लगना पड़ेगा. अब यदि किसी ने अपनी वसीयत कर रखी है कि उसे शांति से मरने दिया जाए तो डाक्टर वैसा फैसला ले सकते हैं.
ऐसा नहीं कि डाक्टर पहले ऐसा नहीं करते थे. जब मरीज को ठीक न किया जा सके तो हर अस्पताल में डाक्टर अपनेआप मरीज का इलाज बंद कर देते हैं. कई बार पूरा पैसा न मिलने पर ऐसा कर दिया जाता है.
यह मुसीबत आमतौर पर कैंसर, एचआईवी, दिल, किडनी, फालिज, याददाश्त खोने जैसी बीमारियों के मरीजों के साथ होती है जिन के ठीक होने की उम्मीद बहुत कम होती है. जब मरीज अपनेआप मर भी न रहा हो या बहुत धीरेधीरे तड़पतड़प कर मर रहा हो. डाक्टरों और घर वालों के लिए सांपछछूंदर की सी हालत हो जाती है न छोड़ते बनता है, न मरने देने के लिए हां करते बनता है. यदि थोड़ीबहुत जमीनजायदाद हो तो वह डाक्टरों या देखभाल करने में स्वाहा हो जाती है. बेहद बीमार जने की देखभाल एक आफत हो जाती है और घर वाले बेहद थक जाते हैं.
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