साधुसंतों का रहनसहन और खानपान तो आम लोगों से भिन्न रहता ही है मगर वे मरने के बाद भी विशिष्ट दिखना चाहते हैं. इस के पीछे उन की व उन के संप्रदायों की मंशा महज धर्म के नाम पर चल रही दुकानदारी को और चमकाना होती है. धर्म के धंधे की बुनियाद ही यह है कि धर्म के रखवाले कहे जाने वाले साधुसंत ही हकीकत में धर्म के नाम पर लोगोें का तरहतरह से शोषण करते हैं, व्यवस्थित और संगठित समाज से अलगथलग दिखना चाहते हैं. महज लंगोट और गेरुए वस्त्र पहन सांसारिकता त्यागने का ढिंढोरा पीटने वाले साधुसंत शरीर पर भभूत और माथे पर बड़ा सा तिलक जरूर लगाते हैं. ये लोग हाथ में भाला, डंडा या त्रिशूल भी रखते हैं. यह ‘त्याग’ भक्तों में श्रद्धा पैदा करने के लिए किया जाता है. यह दीगर बात है कि हकीकत में यह हुलिया मुफ्त कमानेखाने यानी चढ़ावा और दक्षिणा हथियाने के लिए रखा जाता है.

अपनी सहूलियत के लिए साधुसंत रिहायशी इलाकों से कुछ दूर मंदिरों में रहते हैं. हाथ में पकड़ा डंडा या त्रिशूल दरअसल, दुष्टों के संहार के लिए नहीं बल्कि कुत्ते, बिल्लियों और दूसरे जंगली जानवरों से बचाव के लिए रखा जाता है. इस से सहज ही समझा जा सकता है कि भगवान के ये तथाकथित दूत और धर्मरक्षक असल में कितने चमत्कारी होते होंगे. बीते 2 दशकों से साधुसंतों में विचित्र तरह की एकजुटता देखने में आ रही है कि ये लोग भी साथसाथ रहने लगे हैं. ऐसा पहले की तरह शैव, वैष्णव या किसी दूसरे संप्रदाय की विचारधारा के अनुयायी होने न होने के कारण नहीं हो रहा बल्कि मुफ्त की रोटी तोड़ने तथा एक और एक ग्यारह बनने का सिद्धांत इस के पीछे काम कर रहा है. इन्हें मुफ्त की जमीन की चाहत रहती है जिस से मेहनत न करनी पड़े. साधुसंत भी समझने लगे हैं कि बुढ़ापे में अशक्तता के चलते भीख भी नहीं मिलनी है, इसलिए भलाई इसी में है कि बुरे वक्त के लिए पैसा व जमीनजायदाद इकट्ठी की जाए. इन की इस कमाई व गहनों को लूटने में चोर, लुटेरे और डाकू भी कोई रहम, लिहाज या रियायत नहीं करते.

मामूली जानवरों और चोरलुटेरों से जो धर्म अपने ही दूतों का बचाव करने में नाकाम हो उस की पोल तो अपनेआप ही खुल जाती है. और जब बड़े पैमाने पर यह पोल खुलती है तब मुद्दे की बात से आम लोगों का ध्यान बंटाने के लिए ये साधु खासा हंगामा व फसाद खड़ा कर देते हैं. ऐसा ही कुछ पिछले दिनों भोपाल में हुआ. फसाद भोपाल का

भोपाल की उपनगरी भेल, जोकि देश के बड़े औद्योगिक केंद्रों में से एक है, के भूतनाथ मंदिर में एक नागा संन्यासी विष्णु गिरि की मौत हुई तो साधुसंत उसी जगह उस की समाधि बनाने की जिद पर अड़ गए जहां पर संन्यासी मरा था. समाधि बनाने में आड़े आया भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड का प्रबंधन जो अपनी बेशकीमती जमीन पर समाधि जैसा अनुपयोगी स्थल नहीं बनने देना चाहता था. जाहिर है इस से उत्पादन व कारखाने के कर्मचारियों पर बुरा असर पड़ता और जमीन भी बेकार हो जाती. वैसे भी यह भेल का हक था कि वह अपनी जमीन के बाबत खुद फैसला करे.

इस इलाके में कोई 3 लाख लोग रहते हैं जो विष्णु गिरि के भक्त भले ही न हों मगर यह जरूर जानते हैं कि यह संन्यासी भूतनाथ मंदिर में कोई 70 साल से रह रहा था. कुछ लोग मानते हैं कि यहां ऊपरी बाधाओं का इलाज होता है यानी नियमित चढ़ावे के अलावा भी भूतप्रेत, पिशाच जैसी काल्पनिक चीजें आमदनी का बड़ा जरिया थीं. यह आमदनी बनी रहे, इस मंशा से विष्णु गिरि की मौत के बाद उस के चेलेचपाटे व शहर के दूसरे साधुसंतों ने गड्ढा खोद कर समाधि बनाने की तैयारी शुरू कर दी. भेल प्रबंधन को भनक लगी तो उस ने मनमानी पर उतारू इन साधुसंतों को रोकने की खातिर अपना अमला भेजा और जिला प्रशासन से भी सहयोग मांगा जो वक्त रहते मिला भी.

मगर साधु नहीं माने. अपने मंसूबों के लिए उन के पास कोई ठोस दलील भी नहीं थी सिवा इस के कि संन्यासी की समाधि मौत की जगह पर ही बनाना धार्मिक परंपरा है और इस में सरकार, प्रशासन, कानून और भेल को अड़ंगा नहीं डालना चाहिए. न मानने पर पुलिस ने हलका बल प्रयोग किया तो साधुसंत तिलमिला उठे. इसी बीच धक्कामुक्की में विष्णु गिरि की लाश नीचे गिर गई. इस के बाद भी साधु लोग लाश को घसीट कर समाधि तक ले जाने में किसी तरह कामयाब हो गए. मगर भेल प्रबंधन की पहल और जागरूकता के चलते उसे दफना नहीं पाए. दफना लेते तो धर्म की एक और दुकान बन कर तैयार हो जाती, जिस पर चढ़ावा चढ़ता, रोज सैकड़ों श्रद्धालु आते, मनौतियां मांगते और इन साधुसंतों को विष्णु गिरि के नाम पर मुफ्त का पैसा मिलता.

बवाल के बाद बातचीत शुरू हुई तो संत समुदाय ढीला पड़ गया. उस के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था कि भेल प्रशासन अपनी जमीन पर समाधि क्यों बनाने दे. भेल प्रबंधन की समझदारी इस मामले में वाकई तारीफ के काबिल कही जाएगी कि वह संतों की जिद के आगे नहीं झुका. भेल के महाप्रबंधक ने स्पष्ट कहा कि किसी भी कीमत पर समाधि बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती. हालांकि दुकान चलाने के लिए संत समुदाय यह बात लिखित में देने को भी तैयार था कि समाधि के ऊपर कोई निर्माण कार्य नहीं किया जाएगा. कितना कमजोर धर्म

यह विवाद धर्म की कई कमजोरियों को उजागर कर गया. मसलन, धर्म मोहताज है लिखापढ़ी का, पुलिस का और कानून का और उस की जड़ में पैसा कमाने का लालच भर है. भक्तों की तमाम समस्याएं धार्मिक चमत्कार से सुलझाने और दूर करने का दावा करने वाले संत जब खुद एक समाधि बनाने के लिए कानून के मोहताज हों तो उन के चमत्कार के दावों पर कोई क्या खा कर भरोसा करे. अगर वाकई धर्म में चमत्कार होता तो क्यों विष्णु गिरि की मौत के साथ ही समाधि खुदबखुद नहीं बन गई? लाठीचार्ज कर रहे पुलिस वालों की लाठी गायब क्यों नहीं हो गई? भेल प्रबंधन की बुद्धि क्यों किसी भगवान ने नहीं हर ली? समाधि बनाने के लिए उपद्रव कर रहे साधु सीधे भगवान की अदालत में क्यों नहीं चले गए?

आम नागरिकों की अदालत की शरण व संतों की कानूनी मोहताजी बताती है कि इन में कोई खास बात नहीं होती न ही कोई दैवीय शक्ति या चमत्कार होता है. सिर्फ मुफ्त की कमाई के लिए ये आम लोगों की तरह जीना तो दूर मरना भी पसंद नहीं करते. अगर विष्णु गिरि को जला दिया जाता तो उन का शरीर राख हो जाता फिर कोई चमत्कारों के दावों पर यकीन नहीं करता. मंशा इस प्रकार की थी कि संन्यासी का मृत शरीर जमीन के अंदर रह कर भी भक्तों का भला काल्पनिक चमत्कारों के जरिए करता रहता है क्योंकि संत मरता नहीं है देह त्यागता है.

यह अगर सच है तो फिर उस की लाश घसीटने की नौबत क्यों आई, क्यों नहीं वह खुद चल कर समाधि स्थल तक पहुंच गई? इन हकीकतों के बाद भी साधु समुदाय ने लोगों को बरगलाने के लिए हिंदू धर्म की मान्यताओं का खुला मखौल उड़ाते श्मशानघाट में यज्ञ व हवन किया तो धर्म की और इन की हकीकत जरूर खुदबखुद उजागर हो गई कि कैसे धर्म के नाम पर पैसा कमाने के लालच में नियम बनाए व तोड़े जाते हैं. यह दोहरापन अपनेआप में जरूर एक चमत्कार है. पूरे बवाल में हैरत की बात है कि कोई कानूनी लिखापढ़ी नहीं हुई. भेल प्रबंधन के एक अधिकारी की मानें तो उन्होंने जिला प्रशासन को मौखिक सूचना ही दी थी. कथित लाठीचार्ज के वक्त भेल का कोई अधिकारी घटनास्थल पर मौजूद नहीं था.

आम लोग तो दूर की बात है, कई धार्मिक लोग भी साधुओं की इस हरकत से नाराज दिखे. एक देवीभक्त रामजीवन दुबे की मानें तो ‘‘यह धर्म की दुकानदारी चमकाने का तरीका भर था. मरने के बाद भी साधु खास क्यों माना जाए. ये लोग मरने के बाद आम लोगों की तरह जलने से क्यों डरते हैं. इस तरह के बेवजह के फसाद आम लोगों में धर्म की छवि बिगाड़ते हैं.’’ इस के उलट एक दूसरे संत पवन गिरि ने खुलेआम पुलिस वालों और भेल प्रबंधन को अनिष्ट का शाप तक दे डाला जिस का कोई असर नहीं हुआ. यह बात शायद ही कोई बता पाए कि क्यों सुभाष नगर विश्राम घाट में कचरा फेंकने की जगह मृत साधु की समाधि बनाई गई.

हकीकत में विष्णु गिरि का असली अपमान पुलिस या भेल प्रबंधन ने नहीं, खुद संतों ने उन के मरने के बाद किया है.

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