दिल्ली में सीलिंग के मामले में सुप्रीम कोर्ट का लचीला न होना एक अच्छा संकेत है. दिल्ली की ही नहीं हर शहर की हालत बुरी हो रही है. बाबुओं और नेताओं को अपनी जेबें भरने की चिंता है, नागरिकों, औरतों, बच्चों, बूढ़ों की नहीं. शहरों में रोजगार मिलने और सिर पर साए की तलाश में आए लोगों ने पहले से रह रहे लोगों का जीवन तो नर्क बना ही डाला, अपने लिए भी कूड़े के ढेरों पर रहने, खाने, काम करने का अभ्यास कर लिया. ऐसा लगता है कि दिल्ली जैसे शहरों में सिर्फ जानवर रहते हैं और इन जानवरों में भी गंदगी पसंद सूअर ही ज्यादा हैं.

दुकानदारों और मकानदारों की मांग के आगे झुकते चले जाते खुद को कामदार कहने वाले नेताओं को तो भजनपूजन व प्रवचन से ही फुरसत नहीं है और उन के मातहतों को हलवापूरी खाने और हर नागरिक, दुकानदार और अतिक्रमण करने वाले से पैसा वसूलने से. दिल्ली जैसे शहरों को सुधारा नहीं जा सकता यह बेमतलब की बात है. दुनिया के कितने ही गरीब देशों की राजधानियां दिल्ली से कहीं ज्यादा अच्छी हैं और हमारे यहां तो प्रधानमंत्री कार्यालय के 1 किलोमीटर के दायरे में सड़कों पर कच्ची दुकानें, बड़े दफ्तरों के आगे टिन के गार्डरूम, पटरियों पर पंप हाउस, आड़ेतिरछे पेड़पौधे दिख जाएंगे.

लगता ही नहीं कि नागरिक सेवाओं की चिंता इस 1 किलोमीटर में भी म्यूनिसिपल कौरपोरेशन, दिल्ली सरकार या मोदी सरकार को है. यह 1 किलोमीटर स्वच्छ भारत अभियान की पोल खोलने के लिए काफी है. चूंकि सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के घर इस दायरे में हैं, उन की चिंता सही है.

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