जिंदगी और मौत पर किसी का बस नहीं है. यह पुरानी कहावत है. पर मौत को भुनाना तो अपने बस में है ही न? फिल्मी तारिका श्रीदेवी की सिर्फ 54 साल की उम्र में दुबई के एक होटल के कमरे में बाथटब में हुई मौत ने घंटों टीवी चैनलों को और कई दिनों तक समाचारपत्रों में सुर्खियों को चमकाने का मौका दे डाला. उन की मौत पर इस तरह की आलतूफालतू बातें हुईं मानो देश में कोई भूचाल आ गया हो.

श्रीदेवी की मौत चाहे हादसा थी, प्राकृतिक थी या फिर सुनियोजित, एक व्यक्तिगत मामले से ज्यादा नहीं थी. बोनी कपूर व श्रीदेवी कपूर में अगर अनबन थी भी और उस की मृत्यु में कोई रहस्य छिपा हुआ भी था तो भी इस बात को इतना तूल देने की जरूरत न थी. यह एक खाली बैठे समाज की पहचान है, जिसे दूसरों के गमों और गलतियों में मजा आता है ताकि वह अपने गम भुला सके. श्रीदेवी मौत के समय एक रिटायर्ड ऐक्ट्रैस थीं. 12 साल बाद घरगृहस्थी के चक्कर से निकल कर श्रीदेवी ने ‘इंग्लिशविंग्लिश’ व ‘मौम’ फिल्मों में बेहतरीन काम किया पर फिर भी वे अपनी पुरानी जगह न ले पाईं. वे न मृत्यु के समय मर्लिन मुनरो थीं और न मधुबाला.

श्रीदेवी ने बहुत सी अच्छी फिल्मों में काम किया पर उन की कम ही फिल्मों ने कोई सामाजिक असर छोड़ा. आखिरी 2 फिल्मों में मांओं और पत्नियों के रोल में वे प्रेमिकाओं और नर्तकियों से अच्छा प्रभाव दिखा सकीं. दोनों फिल्में सामाजिक मामलों पर थीं और मां को अपने विशिष्ठ स्थान दिखाने वाली थीं. उन का प्रभाव था पर ‘चांदनी’, ‘सदमा’, ‘मिस्टर एक्स’ में उन के रोल अच्छे होते हुए भी वे लंबा प्रभाव न छोड़ पाईं. ‘लमहे’ का विषय जरूर चौंकाने वाला था और आशा थी कि उसे दूसरी फिल्मों से ज्यादा सफलता मिलेगी पर उस फिल्म को भारतीय दर्शक पचा न पाए. अपनी मां के प्रेमी से प्रेम करना लोगों को इंसैस्ट की तरह लगा था. एक अभिनेत्री की मृत्यु उस के काम की समीक्षा करने का एक और मौका होता है और जो चर्चा कई दिनों तक होती रही वह फिल्मों, व्यक्तित्त्व, गुणदोषों पर होनी चाहिए थी पर होती इस बात पर रही कि मौत कैसे हुई?

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