बीती 22 नवंबर को एक बार फिर जब यह चर्चा आम हुई कि सरकार तीन तलाक को ले कर या तो पुराने कानून में संशोधन करेगी या फिर सिरे से नया कानून बनाएगी तो लोगों को सहसा याद आया कि इस मसले पर कुछ दिन पहले ही तो खासा हंगामा मचा था, लेकिन फिर बात आईगई हो गई.
मगर इस बार इस खबर का कोई असर आम लोगों पर नहीं हुआ कि सरकार एक बार में तीन तलाक का रिवाज खत्म कर नए कानून में क्याक्या बदलाव करेगी और उस से मुसलिम महिलाओं को क्या हासिल होगा. यह जरूर लोगों ने सोचा कि क्या अब तलाक के लिए मुसलिम दंपतियों को भी अदालतों की खाक छानते हुए कानूनी सजा जिसे रहम कहा जा रहा है भुगतनी पड़ेगी?
कानून में दिचलस्पी रखने वालों को जरूर इस बात पर हैरत है कि अगर सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में विधेयक लाती भी है तो उस का क्या हश्र होगा और यह विधेयक कानून में कब तक बदल पाएगा. तब तक क्या मुसलिम महिलाएं दुविधा की स्थिति में रहेंगी और पुरुष पहले की तरह तीन तलाक का चाबुक चलाते रहने को स्वतंत्र होंगे? वजह केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर का यह कहना था कि चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक बताया है, इसलिए नए कानून की जरूरत नहीं है.
यह था फैसला
22 अगस्त, 2017 को सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बैंच ने 5-2 के बहुमत से कहा था कि एकसाथ तीन तलाक कहने की प्रथा यानी तलाक ए विद्दत शून्य असंवैधानिक और गैरकानूनी है. बैंच में शामिल न्यायाधीशों ने सरकार को 6 महीनों में कानून बनाने का निर्देश दिया था. इस के लिए सरकार ने मंत्री स्तरीय कमेटी भी बना डाली जो तय नहीं कर पा रही है कि इस रिवाज में किस तरह के संशोधन करे या फिर नया मसौदा तैयार कराए, जिस से तीन तलाक के दाग धो कर मुसलिम महिलाओं को एक बेहतर विकल्प दिया जा सके.
जैसे ही यह कथित ऐतिहासिक फैसला आम हुआ था तो देश मानो थम सा गया. घरों में, चौराहों पर, दफ्तरों में, स्कूलकालेजों में, रेलों और बसों में हर कहीं तीन तलाक की चर्चा थी. हर कोई अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए ऐसे किसी उपयुक्त पात्र को ढूंढ़ रहा था जिसे अपनी मूल्यवान राय से अवगत करा कर अपनी बुद्धिमानी के झंडे गाड़े जा सकें.
बात थी भी कुछ ऐसी ही. आखिर सुप्रीम कोर्ट ने औरतों के हक को मारती 14 सौ साल पुरानी एक कुप्रथा महज 28 मिनट के फैसले से एक झटके में जो खत्म कर दी थी. कुछ घंटों से ले कर अगले 3 दिनों तक देश का माहौल बड़ा गरम रहा. जिन्हें कोई श्रोता नहीं मिला उन्होंने अपनी बात सोशल मीडिया पर साझा की. व्हाट्सऐप और फेसबुक पर तीन तलाक नाम की कुप्रथा से संबंध रखते हुए नएनए विचार प्रसारित हो रहे थे, जिन का सार सिर्फ इतना था कि औरत जीत गई, मजहब हार गया.
मजहब यानी इसलाम
चारों तरफ पसरती उत्तेजना और रोमांच देख महसूस यह हो रहा था मानो यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं, बल्कि भारतपाकिस्तान के बीच चल रहा वन डे क्रिकेट मैच था, जिस के आखिरी ओवर में आखिरी गेंद पर भारत को जीत के लिए 5 रन चाहिए थे और बैट्समैन ने छक्का मारने का करिश्मा कर दिखाया और भारत मैच जीत गया. लिहाजा खूब जश्न मना. तरहतरह के कमैंट्स और तजरबे इधर से उधर झूला झूलते रहे.
जिन्होंने बारीकी से माहौल देखा उन्होंने एक अजीब बात यह महसूस की कि वाकई मुसलमानों के चेहरे उतरे हुए हैं. मसजिदों में नमाज पढ़ कर निकल रहे लोग चिंतन और चिंता की मुद्रा में थे और लगभग सिर झुकाए चल रहे थे. टीवी चैनलों पर शरीयत का हवाला देते हुए कट्टरपंथी मुसलमानों की दलीलें गैरमुसलमानों की सुधारवादी दहाड़ों के आगे सुनाई ही नहीं दे रही थीं.
सुनने लायक सुनाई दे रहा था तो बस इतना कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हैं लेकिन तीन तलाक के जिस तरीके को सुप्रीम कोर्ट ने नाजायज ठहराया है वह दरअसल में शरीयत के मुताबिक है ही नहीं. फिर आवाजें आईं जिन में प्रमुख शब्द थे इद्दत, खुला, हवाला, वक्फा और भी न जाने क्याक्या. इस ऐतिहासिक फैसले पर मुसलमानों से ज्यादा हिंदुओं ने खुशी जताई.
सब से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई देने वालों में 2 नाम उल्लेखनीय थे और वे थे भाजपा सांसद व अभिनेता परेश रावल और अभिनेता अनुपम खेर. तीसरा उल्लेखनीय नाम पाकिस्तानी मूल की नायिका सलमा आगा का था, जिन्होंने करीब 35 साल पहले बी.आर. चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘निकाह’ में मुख्य भूमिका निभाई थी.
यह नीलोफर नाम की एक ऐसी युवती की कहानी थी जिसे पहला शौहर तलाक दे देता है तो वह कालेज के जमाने के एक दोस्त से दूसरी शादी कर लेती है. लेकिन एक गलतफहमी के चलते दूसरा शौहर भी तलाक देने पर उतारू हो जाता है. इस पर नीलोफर तीन तलाक को ले कर अंदर तक तीखे और कुरेदते सवाल करती है. सुप्रीम कोर्ट ने इन्हीं को विस्तार दिया है.
इधर 23 अगस्त, 2017 के अखबार भी उन नायिकाओं की चर्चा से भरे पड़े थे, जिन्होेंने तीन तलाक की प्रथा के खिलाफ मुकदमे दायर कर रखे थे. इन में भी सुपरस्टार थी शायरा बानो नाम की महिला, जिस ने फैसले के बाद प्रतिक्रिया दी थी कि मुसलिम महिलाओं में तो शादी के बाद से ही तलाक का डर बैठ जाता है. अब वे खौफ के साए में जीने के बजाय आजाद हो कर जिएंगी.
गुलामी से बदतर यह आजादी
शायरा का उत्साह स्वाभाविक बात है पर वह जिस आजादी का हवाला दे रही है वह दरअसल में एक ऐसी गुलामी है, जिस में फंस कर औरत छटपटाती ही रहती है.
कल्पना करें कि ‘निकाह’ की नीलोफर हिंदू होती तो क्या होता. होता यह कि वह घुटती रहती और पति की ज्यादतियां बरदाश्त करती रहती और जब बरदाश्त की हदें जवाब दे जातीं तो क्रूरता और तलाक का मुकदमा ठोंकने अदालत चली जाती.
फिर होता यह कि उसे सालोंसाल यह साबित करने में लग जाते कि पति वाकई क्रूर है. वह अपने व्यवसाय में व्यस्त है, इसलिए पत्नी को वक्त नहीं दे पाता, जिस से झल्लाई पत्नी एक दिन उसे सैक्स के अपने अधिकार से वंचित कर देती है तो वह और झल्ला उठता है. इस के बाद क्लाइमैक्स में पति महसूस करता है कि पत्नी ने मेहमानों के सामने उस के खानदान की नाक कटवा दी है. तब वह तलाक तलाक तलाक कह कर उसे जिंदगी और घर दोनों से निकाल देता है.
तीन तलाक नाम की कुप्रथा के बंद होने के बाद नीलोफर की स्थिति क्या होती? वह होस्टल में ही रहती और पराए मर्दों की बुरी नजरों को झेलती अपनी दास्तां डायरी में लिखती रह जाती.
भोपाल के एक वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर तिवारी (बदला नाम) आमतौर पर इंश्योरैंस और क्लेम संबंधी मुकदमे लेते हैं. उन की साली सारिका (बदला नाम) की शादी 2002 में केंद्र सरकार के एक कर्मचारी से हुई थी. दोनों परिवारों की समाज में अपनी प्रतिष्ठा थी. लिहाजा सभी को उम्मीद थी कि दोनों की पटरी अच्छी बैठेगी.
जैसाकि आमतौर पर होता है शादी के बाद डेढ़दो साल तो ठीक गुजरे पर उस के बाद दोनों में खटपट होने लगी. सारिका ने महसूस किया कि पति देवेंद्र (बदला नाम) अपनी मां और बहनों पर ज्यादा ध्यान देता है और उन्हीं के कहने में है. इस पर उस ने धीरेधीरे अपना एतराज दर्ज कराना शुरू किया जो 1 साल बाद ही रोजरोज की कलह में तबदील हो गया.
सारिका चाहती थी कि देवेंद्र जैसे ही शाम को दफ्तर से घर आए तो पहले बैडरूम में आ कर उस के पास बैठे, जबकि अपनी आदत के मुताबिक देवेंद्र दफ्तर से आ कर पहले ड्राइंगरूम में आ कर मां के पास बैठ कर बतियाता था. इस दौरान कालेज में पढ़ रही दोनों बहनें भी उन के पास आ बैठती थीं.
एकाध साल तो सारिका भी सब के साथ ड्राइंगरूम में बैठी पर उस के बाद उस ने अपना डेरा बैडरूम में जमा लिया. शुरूशुरू में देवेंद्र ने उस के इस बदलते व्यवहार के बारे में पूछा तो वह बहाने बना कर बात को टाल गई, लेकिन फिर जवाब देने लगी कि तुम्हें क्या, तुम तो जा कर बैठो अपनी बहनों और मां के पास. बीवी तो नौकरानी होती है, उस की कीमत क्या.
कुछ दिन ऐसे ही कट गए. लेकिन सारिका की जिद और अहं ने देवेंद्र का जीना दुश्वार कर दिया. अब दोनों तरफ से तरहतरह के आरोप लगने लगे. फिर एक दिन बगैर किसी को बताए सारिका अपने मायके चली गई. उस के इस अप्रत्याशित कदम से हकबकाए देवेंद्र को जब उस के ससुर ने बताया कि सारिका उन के यहां है तो उसे बेफिक्री भी हुई और सारिका की इस बेजा हरकत पर गुस्सा भी आया. अत: उस ने तय कर लिया कि अब वह अपनी तरफ से कोई पहल नहीं करेगा.
अब दोनों में बोलचाल भी बंद हो गई. सारिका के पिता ने दुनिया देखी थी. दुखी बेटी की तकलीफ सुन वे सारा माजरा भांप गए. उन्होंने बेटी को समझाया भी कि जराजरा सी बातों पर ससुराल छोड़ना बुद्धिमानी की बात नहीं. कुछ दिनों में ही सारिका के कसबल ढीले पड़ने लगे. अब वह चाहती थी कि देवेंद्र उसे लेने मायके आए. इधर खुद को बेइज्जत महसूस कर रहे देवेंद्र ने ससुर से साफसाफ कह दिया कि उस का घर है जब चाहे आए, अपनी मरजी से गई है, इसलिए वह लेने नहीं आएगा.
सारिका के घर वाले भी उसे समझासमझा कर हार गए. सारिका ने उन से स्पष्ट कह दिया, ‘‘अगर मैं आप लोगों को भार लगने लगी हूं तो किसी वूमंस होस्टल में रहने चली जाती हूं. पेट भरने के लिए किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू कर देती हूं.’’
बात कैसे भी नहीं बन रही थी. तय हुआ कि जब दोनों साथ नहीं रह सकते या रहने को तैयार नहीं, तो तलाक के अलावा कोई विकल्प नहीं. इस बाबत पहले महज धौंस देने की गरज से देवेंद्र को कानूनी नोटिस भेजा गया, तो उस का पारा 7वें आसमान पर जा पहुंचा और उस ने कानूनी भाषा में ही वकील के जरीए जवाब दिया.
अब सुलह की रहीसही गुंजाइश भी खत्म हो गई थी. सारिका जब वापस नहीं आई तो देवेंद्र ने भी तलाक का मुकदमा ठोंक दिया. शुरू में तो सारिका तलाक के नाम से डरी, लेकिन इस से ज्यादा वह कुछ और नहीं सोच सकी कि देवेंद्र अगर उसे चाहता होता तो मुकदमा दायर न करता. जरूर मां और बहनों के बहकावे में आ कर उस ने यह किया है.
अब अदालत में मुकदमा चल रहा है आरोपप्रत्यारोप लग रहे हैं. बात रिश्तेदारी में आम हो गई है और समाज के लोग तलाक के एक और मुकदमे का लुत्फ उठा रहे हैं.
सारिका घरगृहस्थी के बंधन से आजाद है. ऐसी आजादी की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, जिस में आएदिन दिखावे की हमदर्दी और पीठ पीछे ताने और हजार तरह की बातें हैं. घर वाले भी पहले सा खयाल नहीं रखते. उस ने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली है. किसी भी तरह वह अदालत में यह साबित करना चाहती है कि दांपत्य की इस टूटन और मुकदमे की वजह वह नहीं, बल्कि देवेंद्र की बहनें और मां हैं. हरिशंकर तिवारी को समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें क्या नहीं.
‘निकाह’ फिल्म की नीलोफर और सारिका की हालत में कोई खास फर्क नहीं है. बस उस की वजह अलग है. एक परित्यक्ता या तलाक का मुकदमा लड़ रही महिला की जिंदगी कितनी नीरस, उबाऊ और यंत्रणादायक होती है इस का अंदाजा सारिका को देख कर लगाया जा सकता है. देवेंद्र जैसा कोई भी पुरुष उस वक्त तक दूसरी शादी नहीं कर सकता जब तक उस का पहली पत्नी से तलाक न हो जाए.
कैसे बैठेगी पटरी
फैसला तीन तलाक के रिवाज पर आया है, जिस में महिलाओं की स्थिति का कहीं जिक्र नहीं है, न ही इस बात का उल्लेख है कि जब कोई पतिपत्नी वजहें कुछ भी हों साथ नहीं रह सकते तो कोई कानून क्या कर लेगा.
तलाक के लाखों मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं. इन में हिंदू महिलाओं के ज्यादा हैं, मुसलमान महिलाओं के कम. वजह अब तक तीन तलाक की प्रथा थी, जिस के खत्म होने से फर्क इतना आने की संभावना है कि वे अपना पक्ष अदालत में रख सकेंगी, लेकिन शौहर को वापस पा सकेंगी इस सवाल का जवाब सारिका जैसी औरतें दें तो वह न में ही होगा.
बात हिंदू या मुसलिम की नहीं, बल्कि औरत की की जाए तो समझ आता है कि समस्या तलाक का तरीका कम पतिपत्नी में पटरी न बैठना औरतों की बदहाली की वजह ज्यादा है. तलाक एक झटके में हो या उस का मुकदमा सालोंसाल चले वे किसी भी कीमत पर पति को हासिल नहीं कर सकतीं.
पारिवारिक जिम्मेदारियों और सामाजिक दबावों के चलते कितने दंपती नर्क की सी जिंदगी जीने को मजबूर हैं, इस का ठीकठीक आंकड़ा शायद ही कोई दे पाए. लेकिन इस के उदाहरण हर कहीं आसानी से मिल जाते हैं यानी विवाद, अलगाव और तलाक सामान्य बात है, जिस का संबंध पतिपत्नी में किसी वजह से आपसी समझ और तालमेल न होना है तो तीन तलाक के रिवाज के बंद होने पर बातों के बताशे फोड़ना एक धार्मिक जिद भर नजर आती है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मुसलमान गुस्से में हैं.
भोपाल में 10 सितंबर, 2016 को आल इंडिया मुसलिम पर्सनल लौ बोर्ड की मीटिंग में धर्म और समाज के ठेकेदारों ने दोहराया कि वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की इज्जत करते हैं पर अपने मजहब और शरीयत में किसी तरह का दखल बरदाश्त नहीं करेंगे. यह बात कतई हैरानी की नहीं थी कि उन्होंने यह बात महिला प्रतिनिधियों के मुंह से भी कहलवा ली.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सरकार को निर्देश दिया था कि वह 6 महीनों में मुसलिम तलाक पर कानून बनाए और वह ऐसा नहीं करती है या नहीं कर पाती है तो उस का हालिया फैसला ही कानून माना जाएगा. इस निर्देश के मद्देनजर सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में विधेयक पेश कर सकती है पर इस में बात सिर्फ मुसलिम महिलाओं की होगी, हिंदू महिलाओं की दुर्दशा पर भी सरकार संवैधानिक स्तर पर ध्यान दे तो वास्तव में वाहवाही और आभार उसे तीन तलाक पर पहल करने से भी ज्यादा मिलेगा.
देश के बुद्धिजीवी वर्ग और आकाओं ने इस फैसले को समान नागरिक संहिता की दिशा में बढ़ता सार्थक कदम बताया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुसलिम बहनों को बधाई दे डाली. परेश रावल और अनुपम खेर जैसे हिंदूवादी अभिनेताओं की कथित खुशी यह है कि मुसलिम महिलाओं को तीन तालक से छुटकारा मिल गया. जबकि हकीकत क्या है यह हर कोई समझ रहा है. इन्हें और इन जैसे लोगों को इस बात से कोई मतलब नहीं कि तलाक की त्रासदी भुगतते पतिपत्नियों को इस से क्या हासिल होगा. तलाक तो तलाक है, फिर चाहे वह फटाफट वाला हो यह लंबा खिंचने वाला. दोनों ही स्थितियों में पतिपत्नी कुछ नहीं कर पाते. उन्हें किसी भी कीमत या शर्त पर एकदूसरे से छुटकारा चाहिए होता है.
बात तब बिगड़ती है जब कोई एक पक्ष तलाक न देने की जिद पर अड़ जाता है. अब अगर मुसलिम महिलाओं को अदालत जाने का हक मिला तो वे भी सारिका की तरह पेशी दर पेशी अपनी एडि़यां अदालत की देहरी पर रगड़ेंगी, लेकिन तलाक इतना आसान काम नहीं जितना वे समझ रही होंगी.
इन की अनदेखी क्यों
तीन तलाक पर सुप्रीम कोेर्ट का फैसला आने के बाद भी इस के मामले आने जारी रहे तो एक बार फिर केंद्र सरकार की तरफ से 1 दिसंबर को ये संकेत दिए गए कि महज एक बार में बोल कर तीन तलाक देने वाले शौहर को तीन साल की सजा हो सकती है और तीन तलाक अपराध की श्रेणी में माना जाएगा, जिस में पति को जमानत भी नहीं मिलेगी.
यकीनन मुसलिम महिलाओं के हक में यह भी सार्थक पहल है कि वे कानून बनने तक तलाक की प्रक्रिया के दौरान गुजाराभत्ता भी मांग सकती हैं और चाहे तो नाबालिग बच्चों की सरपरस्ती भी हासिल कर सकती हैं.
अदालत, सरकार और मंत्री स्तरीय कमेटी के लिए यह एक अच्छा मौका है कि वे हिंदू महिलाओं की परेशानियों के बारे में भी विचार करें खासतौर से उन पहलुओं पर जो असंवैधानिक हैं और रिवाज या प्रथा हैं, जिन के चलते हिंदू महिलाओं को मुसलिम महिलाओं से कम दुश्वारियों का सामना नहीं करना पड़ता.
जन्मकुंडली मिलान कर शादी करना और न मिलने पर प्रस्ताव का खारिज होना कोई संवैधानिक बात नहीं है. इसी तरह संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है कि मांगलिक लड़की को मंगल की दशा के चलते रिजैक्ट कर दिया जाए. ये रिवाज सदियों से चले आ रहे हैं, जो सीधेसीधे धार्मिक दोष के दायरे में आते हैं.
जिस तरह सरकार मुसलिम महिलाओं के हक में संविधान का हवाला बारबार दे रही है उस के दायरे में तो दहेज भी आता है. दहेज कानूनन अपराध होने के बाद भी खुलेआम चलन में है और हर साल लाखों महिलाएं इस की बलि चढ़ जाती हैं. उन की क्या गलती है? अब यह नए सिरे से अदालत और सरकार के लिए तय करना जरूरी हो चला है, जिस से हिंदू महिलाओं को भी राहत मिले. रिवाज तो व्रत और उपवास का भी महिलाओं के भले का नहीं. एक हिंदू महिला पति, पुत्र और ससुराल के भले और सलामती के लिए पचासों तरह के व्रत रखती है.
सरकारें हिंदू पर्वों के आयोजनों पर पानी की तरह पैसा बहाती हैं. यह बात भी संविधान में कहीं नहीं लिखी कि वे जनता के पैसे का मनमाना दुरुपयोग धार्मिक कृत्यों व आयोजनों में करें. फिर इस पर चुप्पी और खामोशी क्यों?
मंत्री स्तरीय कमेटी को धार्मिक पूर्वाग्रह छोड़ते इन विसंगतियों और खामियों को भी नए कानून में शामिल करना चाहिए ताकि जिस से न केवल हिंदू महिलाएं, बल्कि आम लोगों को भी राहत मिले जो तमाम धार्मिक ढोंगों, पाखंडों को रिवाज मानते हुए कुछ बोल नहीं पाते. अदालत इन पर भी खुद संज्ञान ले कर सरकार को निर्देशित कर सकती है. अगर वह ऐसा करेगी तो कुछ कट्टरवादियों को छोड़ कर आम लोग उस की पहल का स्वागत ही करेंगे जैसा तीन तलाक के मामले में मुसलिम समुदाय ने किया.
वापस ‘निकाह’ फिल्म की तरफ चलें तो नायिका की दूसरी शादी इसलिए जल्दी हो गई थी कि वह एक तलाकशुदा स्त्री थी. कोई कानूनी अड़चन उस में नहीं थी. अगर मुकदमा चल रहा होता तो वह इतनी आसानी से दूसरी शादी नहीं कर पाती. यहां मकसद तीन तलाक की हिमायत करना नहीं, बल्कि यह बताना है कि सालोंसाल चलते तलाक के मुकदमों से दोनों पक्षकारों को कितना और कैसाकैसा नुकसान होता है. कोई भी कानून सुधार के लिए बने स्वागत योग्य है पर कानन जिंदगी से खिलवाड़ न कर पाए इस का खयाल रखा जाना भी जरूरी है और तलाक के मामलों में ऐसा तभी होता है जब किसी एक पक्ष को कानून से खिलवाड़ करने की सहूलत मिल जाती है.
ऐसे ढेरों समाचार मिल जाएंगे जिन में विवाहितों के प्रति दूसरे पक्ष ने हिंसक अपराध किया, जिस की वजह काननी पेंच है, जो तलाक की मियाद की गारंटी नहीं लेता. न्याय के लिए बने कानून की चौखट पर लोग महज इसलिए नहीं जाते कि वहां तो अंधेर से भी ज्यादा देर है. ऐसे कानून पर भी पुनर्विचार होना जरूरी है.
तीन तलाक के मसले पर अदालत ने खुद संज्ञान लिया था. उस में किसी शायरा या शाहबानो ने एतराज दर्ज नहीं कराया था. अदालत को चाहिए कि वह इस बात पर भी संज्ञान ले कि देर से मिला न्याय अन्याय नहीं तो क्या है. पतिपत्नी कानूनी देरी के डर के चलते घुट कर जीते हों तो यह भी कानूनी खामी नहीं तो क्या है?
फैसले पर जश्न मना रहे लोगों को भी इस खामी पर पहल करनी चाहिए कि कई देवेंद्र और सारिका तलाक के मुकदमे के लंबे खिंचने के कारण दूसरी शादी कर चैन की जिंदगी जीने की बात सोच ही नहीं पा रहे. उन्हें खुश रहने का मौका क्यों नहीं मिलना चाहिए?