कुछ समय पहले एक दैनिक अखबार में खबर छपी थी जिस का शीर्षक था, ‘बेवजह पत्नी को जान से मार डाला’ और फिर उस समाचार का ब्योरा था कि उस स्त्री का किसी से संबंध था. और फिर किसी फिल्मी कहानी की तरह घटना चलती है. अखबार के भीतरी पृष्ठ के एक कोने में छपा यह एक छोटा सा समाचार था, जबकि यह घटना इतनी छोटी नहीं थी. एक पूरी की पूरी पृष्ठभूमि, सामाजिक आर्थिक संरचना भी उस के साथसाथ चलती है. वह संरचना है समाज द्वारा बनाए गए नियमों की, जिस की गिरफ्त में महिलाएं जकड़ी होती हैं. युवती सात फेरे लगवा कर पत्नी तो बन जाती है लेकिन क्या कोई उस से यह जाननेपूछने की कोशिश करता है कि क्या वह उस पुरुष के साथ जीवनभर बंधने को तैयार है?

देह जब नर देह या मादा देह होती है तो संसार के माने बदल जाते हैं. नर और मादा के इस विभेदीकरण के साथसाथ ही सोच के भी सारे समीकरण बदल जाते हैं, मान्यताओं की सीमारेखाएं बदल जाती हैं, नियमों के बंधन बदल जाते हैं. व्यक्तिगत, समाजगत, संसारगत मान्यताओं व अवधारणाओं में यह परिवर्तन तब तो और भी लक्षित होता है जब यह देह नारीदेह के रूप में परिभाषित होती है. युवती नहीं सराय या धर्मशाला हो

देह का सब से ज्यादा सरलीकरण पौराणिक काल से ले कर अब तक नगरवधुओं, देवदासियों और अब वेश्याओं के रूप में किया जा चुका है, जहां उसे सार्वजनिक उपभोग की वस्तु बना दिया गया है, मानो वह युवती नहीं, सराय या धर्मशाला हो जहां हर कोई अपना पड़ाव डाल सके. उस पर सभी का अधिकार है, पर उस का किसी पर हक नहीं. इस भोग और उपभोग से उत्प्रेरित समाज आज इतना विकृत हो चुका है कि इन युवतियों के अंदर भी कोई युवती होती है जिस की अपनी इच्छाआकांक्षा होती होगी, यह कोई भी सोचना तक नहीं चाहता. शास्त्रोंपुराणों में

स्त्रियों की व्याख्या इस श्रेणी की औरतों की स्थितियां अलग से बहस का विषय हैं. उन औरतों की स्थिति के बारे में देखें जो घर की चारदीवारी में जन्मती हैं, पलती हैं, बढ़ती हैं, एक दहलीज लांघ कर दूसरी दहलीज में प्रवेश करती हैं और अपनी दहलीज समरूप होने तक वहां रहती हैं.

शास्त्रों व पुराणों में महिलाओं की अलगअलग तरह से व्याख्या की गई है. नायिका के रूप में वह मुग्धा, प्रौढ़ा है तो इस से इतर वह देवी, मां, सहचरी, प्राण है. वह बेटी से ले कर मां तक के बीच की यात्रा करती है और इस यात्राक्रम के अपने विभिन्न रूपों बहन, पत्नी आदि के कर्तव्यों का निर्वाह करती चलती है. हमारे शास्त्रों में भी इस धर्मनिर्वाह की चर्चा है, जिस का अभिप्राय है कि महिला को खिलाते समय मां का, स्नेह करते समय बहन का और शयन के समय रंभा का रूप धारण करना चाहिए. यह भी कि पति, पिता, पुत्र आदि के लिए निर्धारित किए गए धर्मों का पालन करने वाली महिलाएं सदा खुशहाल रहती हैं और उन का घरपरिवार धनधान्य से परिपूर्ण रहता है.

महिला से की जाती है वंशवृद्धि की अपेक्षा ध्यान देने योग्य बात यह है कि धनधान्य की यह समृद्धि उन के घरपरिवार के लिए है. यह किसी ने भी नहीं सोचा कि उस परिवार में उस महिला की भी कोई पहचान है जो अपनी कोख व सिंदूर को बनाए रखने की भीख मांगती रहती है, जो व्रतत्योहार के नाम पर यज्ञ की सूखी समिधा सी चिटकती होम होती रहती है. जो महिला घर में खुद जूठा और बासी भोजन कर घर के पुरुषों को ताजा भोजन करवाती है, उस की गिनती कहीं नहीं होती. महिला को वंशवृद्धि के लिए भी याद किया जाता है.

नियमों की गिरफ्त में युवतियां युवती पत्नी बन कर पत्नी के सारे कर्तव्य निभाती है, घर के हर सदस्य खासकर पति की हर इच्छा को सर्वोपरि मान कर चलती है, लेकिन उस से यह पूछना कतई आवश्यक नहीं समझा जाता कि क्या वह अपनी इस स्थिति से संतुष्ट है. दूसरा, अगर समझा भी तो सरसरी तौर पर पूछ लिया, ‘खुश तो हो या सब ठीकठाक है न.’ यह बिलकुल उस औपचारिक रूप के तहत होता है जहां हम पहले से ही मान कर चलते हैं कि सबकुछ ठीकठाक ही होगा.

युवती से तृप्ति की बात खुद पति ही नहीं पूछता

हमारे समाज में संबंधों को विकृत बना कर पेश किया जाता है, जहां युवतियों से बात पूछी ही नहीं जाती. इस कथा में आज तक सिर्फ नायक जिंदा होता है, नायिका तो बस देहभर होती है. देह से ऊपर उठ कर इच्छा के द्वार पर आते ही वह शूर्पणखा हो जाती है.

घर के बुजुर्ग या दूसरे लोगों के लिए यह विषय वर्जनीय है तो हमउम्र के लिए ठिठोली या चुहल का एक गंभीर विषय. युवतियों से तृप्ति की बात स्वयं पति ही नहीं पूछता, अन्यों से तो आशा ही बेकार है. देहपवित्रता की कसौटी

सिर्फ शरीर आज अगर चुटकुलों का इतिहास उलट कर देखें तो हम पाएंगे कि आधे से ज्यादा चुटकुले पतिपत्नी से ही संबंधित होते हैं, जिन में पति पीडि़त और पत्नीपीड़क दिखाया जाता है, जबकि वस्तुस्थिति एकदम उलटी है. पढ़ीलिखी युवती हो या फिर अनपढ़गंवार, उस की इस स्थिति में कोई फर्क नहीं रहता, बल्कि अनपढ़गंवार युवतियां तो एक माने में इसलिए भी अच्छी होती हैं कि वे रो कर, चिल्ला कर, गालियां बक कर, अपने मन का क्रोध कुछ तो हलका कर लेती हैं जबकि पढ़ीलिखी युवतियां खुद के पढ़ेलिखे होने के चलते खामोश ही रहती हैं.

इतिहास साक्षी है कि मात्र रावण द्वारा हर लेने भर से ही सीता को अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा और लांछन पा कर वनवास झेलना पड़ा, यानी चरित्र मापन में पवित्रता की कसौटी सिर्फ उस का शरीर ही है वरना कौन नहीं जानता कि रावण के यहां रह कर भी सीता तनमन से अपने पति को समर्पित रही. उचित नहीं युवकयुवती की मनोवैज्ञानिक व्याख्या

यहां तो विडंबना यह है कि ब्याह होने से ही वह पति से प्रेम करने को बाध्य कर दी जाती है. यह बात वैसे तो पुरुषों पर भी लागू होती है मगर उन के लिए विकल्प छोड़ दिए गए हैं. दरअसल, पवित्रता का संबंध पुरुष देह से है ही नहीं, उसे तो औरतों को ढोना होता है. इसलिए पुरुष अपनी पत्नी को अपनी दासियों, प्रेमप्रसंगों की चर्चा बड़े मजे ले कर सुनाता है, पर पत्नी मजाक में भी ऐसा कुछ कह दे तो भूचाल आ जाता है. वह भूल जाता है कि जिन युवतियों के बारे में पत्नी से चर्चा कर रहा है, वे भी किसी न किसी की पत्नी बनी होंगी और उन के पति भी उन से ऐसी ही अपेक्षा रखते होंगे जैसी वह रख रहा है. पिछली खबर को ही लें. उस का पति यह बरदाश्त न कर पाया कि उस की पत्नी के किसी अन्य से संबंध हो सकते हैं. जाहिर है उस की हत्या लोगों के मन में संतोष और पति के प्रति सहानुभूति प्रकट करेगी. पर क्या उस युवकयुवती की मनोवैज्ञानिक व्याख्या उचित नहीं. संभव है, पति उसे पैर की जूती समझ कर व्यवहार करता हो जिस से उस का दिल आहत होता रहा हो. सामाजिक मान्यताओं के अनुसार ही शब्द और संबंध प्रचलित होते हैं.

भारतीय समाज में कुलटा, बदचलन जैसे शब्द हैं और सती, रखैल जैसे भी. जाहिर है कि ये सब के सब युवतियों के लिए महफूज हैं. इसलिए ये नियम सिर्फ उन्हीं के लिए बने. मर्दों के लिए इन के समानार्थी शब्दों की जैसे दरकार ही नहीं. जरूरत है आज बेवफा जैसे शब्दों की पुनर्व्याख्या करने की ताकि लांछन की सजा मात्र युवती ही नहीं, युवक भी भोगे.

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