भारतीय उन्मादी धर्मनिष्ठ युवाओं द्वारा अमेरिकी टैलीविजन सीरियल ‘क्वांटिको सीजन-3’ के एक एपिसोड के प्रसारण पर जम कर हल्ला मचाया गया. आरोप लगाया गया कि ‘द ब्लड औफ रोमिया’ नामक एपिसोड में ‘भारतीय राष्ट्रवादियों’ को न्यूयौर्क में परमाणु बम हमला करने के लिए प्लौट रचते हुए दिखाया गया था ताकि उस का शक पाकिस्तान पर जाए. 1 जून को प्रसारित हुए इस एपिसोड के बाद सोशल मीडिया पर राष्ट्रवादी बिल्ला लगाए युवाओं का गुस्सा देखा गया. सीरियल में अभिनय कर रही भारतीय अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा और शो निर्माताओं से माफी मंगवाई गई. यह विरोध मोबाइलों से ट्रौल करने में माहिर युवा कैडर ने किया जिस पर कट्टरवादी सोच हावी रहती है.

इस विरोध से जाहिर होता है कि हमारे ये युवा कितने कम उदार, अलोकतांत्रिक और अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान न करने की जिद रखने वाले हैं. ऐसी घटनाओं से बारबार हमारे युवाओं की छोटी सोच उजागर होती रही है. परदे पर जो दिखाया गया है उसे स्वीकार करने और सोचनेसमझने की मानसिकता उन में दिखाईर् ही नहीं देती.

दूसरी तरफ बिहार से खबर है कि लालू प्रसाद यादव के परिवार में उपेक्षा को ले कर तनातनी चल रही है. लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप का छोटे भाईर् तेजस्वी से मनमुटाव है. तेजप्रताप ने अपनी अनदेखी से चिढ़ कर कहा था कि पार्टी में सामंतवादी लोग घुस आए हैं और ऐसे लोग दलित नेताओं व युवाओं को तरजीह नहीं दे रहे हैं.

झारखंड के सिंहभूम जिले में बच्चा चोर और इसी राज्य में पशु चोरी के शक में कुछ लोगों की युवा लठैतों द्वारा जानें ले ली गईं.

देश में अफवाहों का बाजार जानलेवा रूप ले चुका है. ये अफवाहें युवा ही फैला रहे हैं. अफवाहों पर भरोसा कर मौब लिंचिंग जैसी घटनाओं को अंजाम देना आम बात हो गई है. देश के तकरीबन हर हिस्से में गौरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी, राष्ट्रवाद के नाम पर फर्जी देशभक्ति का प्रदर्र्शन कर समाज में द्वेष, ईर्ष्या, नफरत पैदा करने में युवा आगे हैं.

14 जून को महाराष्ट्र के जलगांव के वाकड़ी गांव में ईश्वर बलवंत जोशी के कुएं पर 2 दलित बच्चों के नहाने पर युवा भीड़ द्वारा उन्हें सरेआम नंगा कर मारापीटा गया.

इस तरह की घटनाएं आएदिन हो रही हैं. इन घटनाओं को युवा ही अंजाम दे रहे हैं. आज भी देश में ऊंचनीच का भेदभाव व्याप्त है. अब पढे़लिखे युवाओं का एक वर्ण एवं वर्ग सामाजिक बराबरी के सिद्धांत को स्वीकार करना नहीं चाहता.

संवेदनहीन युवा

पंजाब के लुधियाना के शिवम बिरदी की नोएडा में नौकरी लगी तो वह अपनी प्रेमिका ज्योति को भी साथ ले आया. प्रेमिका भी नौकरी करने लगी. दोनों लिवइन में साथ रह रहे थे. ज्योति एक दिन देर रात में काम से लौटी तो दोनों के बीच झगड़ा हो गया. शिवम ने चाकू से प्रेमिका की हत्या कर दी और शव सूटकेस में ठूंस कर गाड़ी में रखने लगा कि मकानमालिक को शक हो गया और वह पकड़ा गया.

इसी तरह दिल्ली की गीता कालोनी की डोली ने आत्महत्या कर ली. आरोप है कि उस के पति विजय ने गर्भ में पल रहे बच्चे का डीएनए टैस्ट कराने की बात कही थी. पति ने किसी युवक के साथ उसे घूमते हुए देख लिया था, इसलिए उसे शक था कि पत्नी के पेट में पल रहा बच्चा उस का नहीं है.

इन दोनों खबरों में युवाओं की अपने प्यार और परिवार के प्रति प्रेम, सहनशीलता, दायित्वहीनता दिखाई देती है. साथ ही, अपनेअपने जीवनसाथी के प्रति भरोसे की कमी भी नजर आती है. ये चीजें युवाओं ने सीखी ही नहीं हैं.

गुजरात के वेरावल में एक युवक की पत्नी की मौत हो गई तो उस युवक ने दूसरी शादी कर ली. युवक के घर वालों ने बताया कि बहू गौरी की सीढि़यों से गिर कर मौत हुई थी और उस के मांबाप को सूचना दे कर बुला लिया गया था. कुछ ही दिनों बाद गौरी के परिवार वालों ने पुलिस में शिकायत की कि बेटी की हत्या की गई है पर बाद में गौरी के परिवार वालों ने समाज की बैठक बुलाई और सजा का फैसला सुनाते हुए फरमान जारी किया कि युवक राजू 10 साल तक दूसरी शादी नहीं कर सकता. युवक ने चूंकि शादी कर ली तो उस का पूरा परिवार बिरादरी से बाहर कर दिया गया.

हैरानी यह है कि समाज में इस तरह की मध्यकालीन पंचायती सोच आज भी मौजूद है. युवावर्ग इस का विरोध करने के स्थान पर इसे पुनर्स्थापित कर रहा है.

परिवार से संबंधित एक और खबर है कि देश का हर चौथा बुजुर्ग दुर्व्यवहार का शिकार है और दुर्व्यवहार करने वाले उस के अपने ही युवा बेटे, बहू और बेटियां हैं. गैरसरकारी संगठन हेल्पएज इंडिया द्वारा देश के कई शहरों में सर्वे कराए जाने के बाद जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि दुर्व्यवहार करने वालों में आधे से अधिक पढे़लिखे लोग हैं जो उन्हें अपमानित करने से ले कर मौखिक अभद्रता, उपेक्षा व मारपीट तक करते हैं.

जून में ही बौलीवुड फिल्मस्टार सलमान खान का भाई अरबाज खान सट्टेबाजी के आरोप में पकड़ा गया. उस के साथ निर्माता व फाइनैंसर पराग सांघवी का नाम भी आया है. जांच एजेंसी की पूछताछ में खुलासा हुआ कि फिल्म इंडस्ट्री की कई हस्तियां सट्टेबाजी में लिप्त हैं. आईपीएल के दौरान देश में 10 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का सट्टेबाजी का धंधा होता है.

युवाओं का सट्टेबाजी की ओर रुझान बढ़ रहा है. वे रातोंरात करोड़पति बनना चाहते हैं. उन में सट्टेबाजी के साथसाथ नशाखोरी जैसी बुराइयां भी भरी हुई हैं. आंकडे़ बताते हैं कि देश के 80 प्रतिशत से ज्यादा युवा किसी न किसी नशे की गिरफ्त में हैं.

हमारे युवाओं के लिए आज फिल्मी हीरो, अपराधजगत का माफिया डौन, भ्रष्ट अधिकारी और बेईमान कारोबारी आदर्श बन रहे हैं.

क्या यह दुर्दशा इसलिए हो रही है कि देश के अधिकांश युवाओं के सामने भविष्य अस्पष्ट है. जो मिल रहा है वह थोड़े से युवाओं के लिए है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए कटऔफ लिस्ट जारी हो रही हैं. सैंट स्टीफंस कालेज में प्रवेश के लिए पहली कट औफ में 98.75 प्रतिशत अंक रखे गए हैं. सीबीएसई, नीट, जेईई, एसएससी जैसी परीक्षाओं में गलाकाट प्रतिस्पर्धा देखी जा सकती है पर क्या केवल अंक को ही किसी युवा की प्रगति का आधार माना जा सकता है?

पर ये मेधावी युवक जो कुछ कर रहे हैं, केवल अपने लिए ही कर रहे हैं. इन का समाज या देश से कोई सरोकार नजर नहीं आता. बाद में जा कर ये अपने परिवार से भी कट जाते हैं. ज्यादातर युवा आत्मकेंद्रित हो रहे हैं, अपने लिए ही जीने वाले चाहे सफल हों या असफल.

हाल में युवा प्रदर्शनों पर गौर करें तो रेलवे में नौकरी के नियम, एसएससी परीक्षा, छात्रसंघ चुनाव, आरक्षण आदि मुद्दों को ले कर वे सड़कों पर दिखे. पर यह लड़ाई उन की व्यक्तिगत जरूरतों को ले कर थी, स्वयं तक सीमित थी. सामाजिक मुद्दों को ले कर उन में कोई जागृति नहीं है. किसी तरह के आंदोलन की तैयारी का तो सवाल ही नहीं है. समाज में बिखराव युवाओं को खा

गया है. भारतीय युवा आरक्षित और गैरआरक्षित श्रेणियों में बंट गया है. दोनों के बीच सामंजस्य के भाव नहीं, वैमनस्यता फैलाईर् जा रही है. उन में परिपक्व और निस्वार्थ नेतृत्व है ही नहीं जिस पर भरोसा किया जा सके.

दुनियाभर के इतिहास में हमेशा युवाशक्ति का गौरवगान हुआ है. युवाओं ने ही बड़ीबड़ी राजनीतिक व सामाजिक क्रांतियों का नेतृत्व किया है. युवा ही हैं जो इतिहास बदलने की ताकत रखते हैं.  भारत में भी आजादी की अलख जगाने से ले कर संपूर्ण क्रांति और जन लोकपाल विधेयक के लिए हुए आंदोलनों में युवाशक्ति की ही अहम भूमिका रही है. छोटेबड़े सामाजिक बदलाव के वाहक युवा ही बने हैं.

मौजूदा दौर में न केवल पारिवारिक नेतृत्व अपनी जगह छोड़ रहा है, सामाजिक नेतृत्व का अभाव भी खटकने लगा है. पिछले समय से सामाजिक नेतृत्व को ले कर निराशा और दायित्वहीनता की स्थिति नजर आ रही है. इस स्थिति में देश, समाज जटिल दौर में खड़ा दिखाई दे रहा है.

आज देश में पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक मूल्यों के मानक बदल रहे हैं. गैरबराबरी, नफरत, ईर्ष्या, बिना उद्यम किए शीर्ष पर पहुंचने की होड़, एकदूसरे को नीचे गिराने की मंशा, योग्य लोगों पर नाकाबिलों का वर्चस्व, तिकड़में, कोरी बातें बना कर सफल दिखने वालों की बढ़ती संख्या, असहनशीलता, अकर्मण्यता, नशाखोरी, दायित्वहीनता, अंधविश्वास, जैसी प्रवृत्तियों का बोलबाला है.

अंधविश्वास की जकड़न

महिलाओं के प्रति यौनहिंसा से देश पीडि़त है. समाज में छुआछूत, ऊंचनीच और जातपांत की खाई अब भी बहुत गहरी है. दलितों, महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार की घटनाएं आएदिन देखनेसुनने में आती हैं. डायनप्रथा के नाम पर महिलाओं की हत्याएं की जाती हैं. अंधविश्वास में जकड़े लोग नरबलि तक दे डालते हैं जो सभ्य कहलाने वाले समाज के माथे पर कलंक है.

संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार, आज भारत दुनिया की सब से बड़ी युवा आबादी वाला देश है. यहां आधी से अधिक आबादी युवाओं की है. देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या की आयु 35 वर्ष से कम है. यहां 60 करोड़ लोग 25 से 30 वर्ष के हैं जो विश्व के किसी भी देश की तुलना में  सब से अधिक है.

राजनीति में मौजूद युवा नेताओं में भी सामाजिक सोच की और पढ़ने व सही ज्ञान पाने की इच्छा में कमी उजागर होती रहती है.

हाल में त्रिपुरा के युवा मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब ने कह डाला था कि देश में महाभारत युग में भी तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध थीं जिन में इंटरनैट और सैटेलाइट शामिल थे.  देब का दावा था कि महाभारत के दौरान संजय ने हस्तिनापुर में बैठ कर धृतराष्ट्र को बताया था कि कुरुक्षेत्र के मैदान में

युद्ध के वक्त क्या हो रहा था. संजय इतनी दूर रह कर आंखों से कैसे देख सकते थे. इस का मतलब है उस समय भी इंटरनैट और सैटेलाइट था. यह कपोलकल्पित बात पहले पीपल के पेड़ के नीचे बैठा बुर्जुग साधू ही कहता था, शिक्षित मुख्यमंत्री नहीं कह सकता था.

इस से पहले भी वे इसी तरह की हास्यास्पद बातें कर सुर्खियों में रहे. उन्होंने कहा था कि युवा सरकारी नौकरियों के लिए समय बरबाद करने के बजाय पान की दुकान लगा लेते तो उन के खाते में अब  तक 5 लाख रुपए जमा होते. वे प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के तहत लोन ले कर पशुधन खरीद सकते हैं.

इसी तरह उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने कहा था कि रामायण काल में टैस्टट्यूब बेबी की अवधारणा थी. शर्मा ने कहा था कि सीता का जन्म धरती के अंदर से निकले घड़े में हुआ था. इस का अर्थ है कि रामायण काल में भी टैस्टट्यूब बेबी का विज्ञान था.

वे यह बताने को तैयार नहीं कि सीता के मातापिता में क्या दोष था जो टैस्टट्यूब बेबी की नौबत आई. अगर ग्रंथों के आधार पर ही बताया जाए तो सीता के बारे में तथ्य उजागर करने पर उन के जैसी सोच वाले युवा ही सिर फोड़ने को तैयार हो जाएंगे, जैसे प्रियंका चोपड़ा के पीछे पड़ गए. ऐसे में युवा नेता पौराणिक काल की सोच में जी रहे हैं, वे विचलित और दिग्भ्रमित हैं. युवाओं की सोच और समझ किसी तरह के सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन वाली दिखाई नहीं पड़ती. इसीलिए आज युवा होते हुए भी भारत राजनीतिक, सामाजिक सड़ीगली सोच वाले वृद्ध और जर्जर हो चुके नेतृत्व से संचालित होने के लिए अभिशप्त है?

इन उदाहरणों से पता चलता है कि हमारे युवाओं में कितनी काबिलीयत है. इस से यह भी मालूम होता है कि देश की शिक्षा, राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्था में कैसे अभाव व विसंगतियां हैं. हमारे युवाओं को वह शिक्षा नहीं मिल पा रही जिस से उन में सामाजिक समझ उत्पन्न हो. उन में सही राजनीतिक सोच पैदा नहीं हो पा रही है. सामाजिक नेता कोई है नहीं. युवाओं ने परदे के फिल्मी हीरोहीरोइनों या क्रिकेट खिलाडि़यों को अपना आदर्श मान लिया है. फिल्में भी ऐसी जिन में मौलिकता व क्रिएटिविटी का सर्वथा अभाव दिखाईर् देता है. मैदान में भी खिलाड़ी बढ़ते नजर आ रहे हैं और खेलों में जबरदस्त राजनीति है.

पुरातन व संकीर्ण सोच

कभीकभार ताजी हवा देने वाले कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, चंद्रशेखर आजाद जैसे सामाजिक सोच वाले नेता सामने आते तो हैं पर उन पर सरकारों और कट्टर संकीर्ण सोच वाले समाज के लोगों का कहर टूट पड़ता है. सरकारें और पुरानी सोच वाले समाज के लोग ऐसे नेताओं को डरानेदबाने में दिनरात एक कर देते हैं. उन पर हमले किए जाते हैं, देशद्रोह जैसे मुकदमे थोप कर उन्हें जेल में डाल दिया जाता है.

यही कारण है कि आज के युवा भारत पर बुजुर्ग नेता राज ही नहीं कर रहे, उस पर प्राचीन संस्कृति, परंपराओं के नाम पर पुरानी खोखली सोच थोपी भी जा रही है. देश, समाज को आगे ले जाने का दायित्व युवाओं का है पर युवाओं को उन के दायित्व को सिखानेसमझाने वाला कोई नहीं है.

अप्रैल 2011 में जनलोकपाल विधेयक को ले कर अन्ना हजारे के नेतृत्व में आंदोलन हुआ था. इस आंदोलन में स्वत:स्फूर्त युवाओं की उपस्थिति देखी गई. आंदोलन में अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण जैसे चेहरे उभर कर सामने आए. आंदोलन के प्रभाव का तब की यूपीए सरकार पर जबरदस्त असर हुआ पर बाद में इस से जुड़े  लोग अलग होते गए और आंदोलन लक्ष्य से हट गया. कारण यह था कि युवाओं का बड़ा वर्ग किसी एक नेता को नेता स्वीकार करने को तैयार नहीं था.

मध्यकाल में यूरोप में सांस्कृतिक आंदोलन के नाम पर पुनर्जागरण हुआ था. इस में सामाजिक नेताओं की भूमिका प्रमुख थी. बाद में मार्टिन लूथर द्वितीय ने क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव किए. यही नहीं, तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा ने बर्बर, अंधेर, कट्टर समाज के बीच प्रकाश की लौ जगाई. कई सामाजिक सुधार किए.

1917 की रूसी क्रांति इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामाजिकराजनीतिक घटना थी. उस ने निरंकुश शाही शासन ही नहीं, पूंजीपतियों की आर्थिक व सामाजिक सत्ता को समाप्त कर विश्व में मेहनतकशों का राज स्थापित किया.

भारत में छोटेबड़े सामाजिक सुधार होते रहे हैं. समाज सुधारक नेता भी युवा थे. महाराष्ट्र में वर्णव्यवस्था के खिलाफ सामाजिक जागृति पैदा करने वाले ज्योतिबा फूले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना युवा अवस्था में ही की थी. उन्होंने छुआछूत, भेदभाव, स्त्री शिक्षा की अलख जगाई.

भीवराव अंबेडकर युवा ही थे जब उन्होंने छुआछूत का दंश झेला और आंदोलन का रास्ता अख्तियार किया.

राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मध्ययुगीन बुराइयों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा. सतीप्रथा, जातिप्रथा का भेदभाव, छुआछूत, बहुविवाह प्रथा, विधवा विवाह जैसी अमानवीय बुराइयों ने उन्हें झकझोर डाला. उन का युवामन इन बुराइयों को खत्म करने के लिए बगावत कर बैठा.

गांधी ने जब अश्वेतों के साथ भेदभाव देखा और खुद भोगा तो वे युवा ही थे. वे छुआछूत, भेदभाव के खिलाफ संघर्ष के रास्ते पर उतर पड़े.

नेहरू धर्म, जाति की अमानवीयता देख चुके थे और वे समयसमय पर अपने प्रगतिशील विचारों से युवाओं को अवगत कराते रहे.

जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया में युवाओं का बगावती जज्बा ही था जब उन्होंने भ्रष्ट व भेदभावपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ बिगुल फूंक कर देश में समाजवादी व्यवस्था का सपना देखा था.

भारतीय समाज में नेतृत्व का एक सामंती तरीका चलता आया है. खुद को मसीहा, अवतार बता कर भेड़ों की भीड़ को हांका जाए. यह तरीका सफल भी हो रहा है. हिंदूरक्षक, गौरक्षक, दलितरक्षक, पिछड़ा, मुसलिम रक्षक यानी एकदूसरे के प्रति नफरत फैला कर नेता बनना. इन्हें इस बात से कोईर् मतलब नहीं होता कि समाज में समस्याएं क्या हैं, उन पर काम कैसे करना है. नेतृत्व का यह रूप बरगलाने वाला है. यह रूप खतरनाक है. बाद में जब भीड़ की आंखें खुलती हैं तो रोनाधोना मचता है कि नेता ठग, बेईमान, भ्रष्ट, बहुरूपिया था.

सोच का अभाव

युवाओं की मानसिकता एक संप्रदाय, वर्ग, जाति में रहते हुए दूसरे के प्रति नफरत पैदा कर के नेता बनने की रही है. वह अवतार, व्यक्तिपूजा, चमत्कारों पर भरोसा करने वाला है. वह लंबे समय से ऐसे ही नेतृत्व को गढ़ता आया है और उस का गुलाम बना रहता रहा है.

हम दुनिया में भारत को विश्वगुरु के रूप में पेश करते हैं. देश आर्थिक तकनीक क्षेत्र में तो आगे बढ़ा है पर जहां तक सामाजिक विकास की बात है वह अभी भी विश्व में सब से कम रैंक के साथ निचले स्तर के देशों में एक है. हाल के आंकड़े बताते हैं कि भारत मानव विकास सूचकांक में कुल 187 देशों में से 135वें स्थान पर है. सामाजिक विकास की यह खेदजनक स्थिति इसलिए है कि हम आज भी रूढि़वादी मान्यताओं, विश्वासों के नकारात्मक सोच वाले समाज में जी रहे हैं जो समानता व भाईचारे के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता. इस से सामाजिक, आर्थिक गैरबराबरी से ले कर पिछड़ने के कई आयाम जुड़े हुए हैं.

देश में हजारों युवा संगठन हैं, लाखों एनजीओ हैं. युवाओं के लिए केंद्र और राज्य सरकारों में राजधानियों से ले कर जिलों, तहसीलों में युवाओं के लिए विभाग काम कर रहे हैं. जातीय, धार्मिक सेनाएं और संगठन हैं. राजनीतिक पार्टियों के युवा संगठन हैं, फिर भी युवाओं को सही प्रगतिशील सोच की राह दिखाने वालों का एकदम अभाव है. धर्म, जाति, राष्ट्रवाद के नाम पर उन्मादी होते युवावर्ग को उदार, लोकतांत्रिक मूल्यों का खुलापन समझाने वाला कोई नहीं है.

सच तो यह है कि युवाओं के पास समय ही नहीं है. सोच नहीं है, समझ नहीं है. वह आत्मकेंद्रित बन गया है. वह कुछ करना भी नहीं चाहता, मुझे क्या, मेरी बला से.

कब जागेगा युवा

युवा धर्म, जाति की जकड़न में जकड़ा रहना चाहता है. गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता की मार सब से ज्यादा युवाओं पर पड़ती है. पर फिर भी वे सामाजिक मुद्दों पर एकजुट नहीं, बंटे हुए हैं. सोशल मीडिया पर वे अपना अधकचरा ज्ञान बघारने में आगे दिखते हैं. दिखावे का आवरण ओढे़ युवा भौतिकवादी व अवसरवादी बन गया है.

युवा पढ़लिख नहीं रहा है. वह सुनीसुनाई बातों पर ज्यादा यकीन करने का आदी हो गया है. तार्किक सोच का उस में अभाव है. वह तर्कपूर्ण सोचना ही नहीं चाहता. धार्मिक ताकतें यही तो चाहती हैं कि युवा तर्क न करे, हर चीज पर आस्था, विश्वास रखे. युवा तर्कशक्ति को बढ़ाना नहीं चाहता. बुराइयों से लड़ने का उस में जज्बा दिखाईर् नहीं देता.

आर्थिक नेतृत्व तो देश में ही नहीं, दुनियाभर में मजबूत है पर किसी भी समाज  की मजबूती के लिए सामाजिक नेतृत्च की जरूरत अधिक है. समाज मजबूत होगा तभी देश, परिवार खुशहाल होगा.

भारत में ही नहीं, यह कमी दुनियाभर में है. राजनीति में भी जो युवा हैं उन की पिछड़ी सोच समयसमय पर उजागर होती रही है. वे भी मध्यकाल के विचार जगजाहिर करते रहते हैं. नए वैज्ञानिक व तर्कशील सोचविचारों का उन में अभाव है जिन से परिवार, समाज और देश को आगे ले जाया जा सके.

किसी भी देश की युवाशक्ति समाज को तभी सही दिशा में ले जा सकती है जब वह खुद सही दिशा की ओर अग्रसर हो. क्या हमारे युवा आंखें खोलेंगे…

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