जिंदगी जीना क्या होता है? जीने का अर्थ क्या होता है? क्या हम सचमुच अपनी इच्छानुसार जीते हैं या जिंदगी ही हमें अपनी इच्छानुसार जीने के लिए बाध्य करती है? कई बार सवाल बहुत ही जटिल होते हैं और इस की वजह से हम उन के जवाब भी बहुत ही कठिन और पेचीदा कर देते हैं. लेकिन सवाल चाहे कितने भी कठिन हों उन के जवाबों को आसान करना हमारे ही हाथ में होता है. कई लोगों को यह बात ध्यान में ही नहीं आती या यों कहें कि कठिन सवालों के बीच छिपी आसानी किसी की समझ नहीं आती और फिर शुरू होती है खुद की पहचान ढूंढ़ने वाली और कभी खत्म न होने वाली खोज.
हम सभी की जीने की एक अलग ही चाह होती है, अलग कल्पना और महत्त्वाकांक्षा होती है. जब किसी चीज को पाने की चाह होती है तब जीना एक संघर्ष बन जाता है और फिर इस संघर्ष में 2 ही विकल्प बचते हैं- जीतना या फिर खत्म हो जाना. कई बार तो अपनी विवेकबुद्धि परे रख कर किसी भी राह को अपनाते हुए सफलता के पीछे दौड़ लगाई जाती है और कई बार ऐसा रास्ता चुनने की हमें कीमत भी चुकानी पड़ती है. इस सब में सब से ज्यादा ठेस लगती है हमारे मन को और यहीं से शुरू होती है मन:शांति की खोज.
हमारी मन:शांति क्यों कहीं खो जाती है? ऐसा क्या होता है कि जिस चीज को पाने के लिए इतनी जिद की जाती है, उसे अचानक छोड़ देने की हमारी इच्छा होती है? ऐसा क्यों होता है कि सभी चीजों का त्याग कर हमारे कदम यकायक अध्यात्म की राह में चलने लगते हैं?