जो लोग फ्लैटों में पैसा लगा कर यह सोच रहे थे कि अच्छे दिन आते ही उन के फ्लैटों के दाम बढ़ जाएंगे और उन की मेहनत की कमाई दोगुनाचौगुना फल देगी वे अब घरों को भूल ही जाएं. इस देश में मकानों की बहुतायत इतनी है कि अब उन के दाम औंधे मुंह गिर रहे हैं. यह विकास की नैगेटिव ग्रोथ यानी नीचे गिरने का संकेत है कि बिना खुद की छत वाले अब मकानों के लायक पैसा नहीं बचा पा रहे. मकानों के सैक्टर को सुधारने के नाम पर रियल स्टेट कानून और रजिस्ट्रेशन भी शुरू किया गया है और नोटबंदी व जीएसटी की भी मार पड़ी है कि इस गेम में अब पैसा ही नहीं लग रहा और जिन का लगा है वह फंस गया है. दिल्ली के निकट कार्यरत जेपी समूह दिवालिया होने के कगार पर है. डीएलएफ व आम्रपाली ग्रुप भी डूबने लगे हैं.
बैंकों ने इस क्षेत्र में उधार देना बंद कर दिया है और जिन्हें दे दिया गया है उन से वसूली चालू हो गई है. इस क्षेत्र में निर्माणाधीन फ्लैटों पर लाखों लोगों ने अपनी जमापूंजी और उधार ले कर पैसा लगाया था. वे सब अब विकास की आंधी में धुल रहे हैं और उन का पैसा गोल हो गया है. स्टेट बैंक औफ इंडिया के नैशनल बैंकिंग ग्रुप के मैनेजिंग डाइरैक्टर रजनीश कुमार ने साफ कह दिया है कि यह सोचना कि सिर्फ उधार देने वाले बैंक नुकसान उठाएंगे और फ्लैटों में पैसा लगाने वाले आम नागरिकों का पैसा सुरक्षित रहेगा भ्रम है. नुकसान तो दोनों को होगा.
असल में नुकसान केवल घर खरीदारों का होगा, जिन्होंने नारों और विज्ञापनों के झांसे में आ कर निवेश कर दिया था. उन्हें नहीं मालूम था कि सरकार की नीतियां ऐसी कमजोर निकलेंगी कि अर्थव्यवस्था की पहचान रियल स्टेट ही डूबने लगेगा. यह संभव है कि भवन निर्माताओं ने बेहद मुनाफाखोरी की है पर जिस तरह के जोखिम उन्होंने लिए हैं उस में मुनाफे की अपेक्षा तो होगी ही. आखिर इसीलिए तो बैंकों ने भरभर कर भवन निर्माताओं को भी कर्ज दिया और भवन खरीदारों को भी मासिक आय के अनुसार किश्तों पर चुकाने वाला कर्ज दिया. अगर इस धंधे में मूलभूत कमजोरी होती, तो लाखों लोग आज शानदार फ्लैटों में सुख से न रह रहे होते.
भवन निर्माताओं को सरकारों ने नियमों और अनुमतियों के जंजाल में फांस रखा है और पगपग पर नुक्कड़ के सिपाही से ले कर मुख्यमंत्री तक वसूली करता है. जमीन जनता की, मेहनत जनता की, पैसा जनता का पर सरकार ‘मान न मान मैं तेरा मालिक’ की तर्ज पर हर जगह मालिक बन बैठी है. अब काले धन को जड़ से हटाने के पागलपन में धन की जड़ें ही खोद दी जा रही हैं. जब किसान बीज ही खाने लगे तो अकाल तो आएगा और भवन निर्माण क्षेत्र में यह आ पहुंचा है. अब भुखमरी होगी मकानों की. मकान होंगे पर खरीदार नहीं. छतें होंगी पर लोग सड़कों पर रहेंगे.
यही वजह है कि हाल ही में प्रकाशित एक सर्वे ने स्पष्ट किया है कि देश की अधिकांश जनता के पास कैदियों से भी कम जगह लायक छत है. जो छतें बन रही थीं वे अच्छे विकास और सुशासन की बाढ़ में ढह रही हैं.