पंकज त्रिपाठी और पत्रलेखा अभिनीत शौर्ट फिल्म ‘एल’ (एल फौर लर्निंग) मात्र डेढ़ मिनट में महिला सशक्तीकरण पर वह प्रभावोत्पादक टिप्पणी कर जाती है जो अब तक ढेरों सरकारी योजनाएं और नेताओं के छद्म वादोंभरे भाषण नहीं कर पाए.
किस्सा कुछ यों है. मिडिल क्लास फैमिली को करीने से संभालती एक महिला को साइकिल चलानी नहीं आती. जब वह अपने पति से साइकिल चलाना सिखाने के लिए कहती तो वह उस का उपहास करते हुए कहता कि इस उम्र में यह क्या नया शौक चढ़ा है, लोग देखेंगे तो हंसेंगे. पति से मिले मीठे इनकार के बाद जब वह अपने बच्चे की साइकिल ले कर पार्क में खुद ही सीखने की कोशिश करते हुए लड़खड़ाती है तो उस के बेटे को अपने दोस्तों के सामने काफी शर्मिंदगी होती है.
घर आ कर वह अपनी मां से उस की साइकिल दोबारा न छूने की हिदायत देता है. घर में अपने पति और बेटे के हतोत्साहित करते इन रवैयों से वह हार नहीं मानती और अंत में घर का सारा काम निबटा कर दोनों को बताए बगैर वह अपने ही दम पर साइकिल सीखने निकल पड़ती है.
सतही तौर पर देखें तो लगता है कोई बड़ी बात नहीं है. साइकिल तो कोई भी चला सकता है. लेकिन साइकिल का इस्तेमाल यहां प्रतीकात्मक तरीके से हुआ है. सिर्फ साइकिल ही नहीं, आज की महिला जब भी कोई नया काम सीखना चाहती है या फिर किसी पुरानी कमतरी से उबरना चाहती है तो उसे समाज से प्रोत्साहन के बजाए उपहास और उलाहना ही मिलता है. समाज की बात क्या करें, खुद के परिवार में भाई, बहन, पिता या पति भी महिलाओं को घर पर बैठने की हिदायत दे कर उन्हें कुछ नया सीखने से दूर रखते हैं.