राजधानी दिल्ली के कामकाजी लोगों की लाइफलाइन बन चुकी मैट्रो में आप को एक बात देखने को मिलेगी, वह है युवक और युवतियों के बैठने के तरीके में अंतर. जहां युवक आराम से टांगें फैला कर सीट पर बैठते हैं, वहीं युवतियां टांगें सिकोड़ कर बैठती हैं. इस से एक सीट पर अगर 3 या 4 युवक बैठे हों तो एक यात्री की सीट अपनेआप कम हो जाती है.

युवकों और युवतियों के मैट्रो या अन्य सार्वजनिक वाहनों में सीटों पर बैठने के तरीके में अंतर का अध्ययन करने वाले इस शोध पर युवकों की ओर से यह तर्क दिया जाता है कि युवकों की कमर से नीचे की शारीरिक बनावट ऐसी होती है कि उन्हें टांगें सिकोड़ कर बैठने में परेशानी होती है, जिस कारण वे टांगें फैला कर बैठते हैं.

दूसरी ओर स्त्रीवादी विमर्शक इस तर्क को खारिज करते हुए कहते हैं कि अगर शारीरिक बनावट के आधार पर बैठने या चलने के तर्क को माना जाए तो युवतियों को अपनी कमर से ऊपर की शारीरिक बनावट के चलते हाथों को फैला कर चलना चाहिए, लेकिन वे ऐसा नहीं करतीं. वे अपने हाथों को पुरुषों के मुकाबले सिकोड़ कर ही चलती हैं.

इस व्यवहार की वजह समाज में युवकों का वर्चस्व है, जिस कारण वे मैट्रो या अन्य सार्वजनिक वाहनों में आराम फरमा कर बैठते हैं. इतना ही नहीं वे स्थितियों से सामंजस्य बैठा कर खुद को उन के अनुरूप ढालने के बजाय उन्हें अपने अनुकूल बना लेते हैं.

महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें व कोच 1 मार्च, 2013 से दिल्ली सरकार ने डीटीसी की बसों में एकचौथाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी हैं. ऐसा दिल्ली में महिलाओं के सफर को सुरक्षित व आरामदेह बनाने के लिए किया गया.

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