वाणी एक माध्यम है जो विचारों का आदानप्रदान करने में सहायक है परंतु कभी-कभार यह भी हो जाता है :

रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगे सरग पाताल,

आपु तो कहि भीतर रही जूती सहत कपाल.

यानी उच्चारण कितना हो, ज्यादा क्या है और कम क्या? जितना हम साबित कर सकें या जिस को निभा पाएं उतना ही कहें. शब्दों को यहांवहां कहना ठीक होगा या नहीं. यह बात विचारणीय है, क्योंकि आज के दौर में जनमानस में एक बात गहरे बैठ गई है :

जो इधरउधर की बकता है,

वही तो उत्तम से उत्तम वक्ता है.

सही बात, सही समय पर कहना, सही व्यक्ति से कहना और सही वक्त पर कहना, यही वे खास बिंदु हैं जिन पर अमल कर के वाक कला को विकसित व पल्लवित किया जा सकता है अन्यथा समाज से तिरस्कृत होने में देर नहीं लगती. यह भी सच है कि जिसे अपने भावों को सही तरीके से व्यक्त करना नहीं आता वह किसी काम का नहीं रह जाता.

गूंगे के गुड़ वाली बात भी बहुत महत्त्व रखती है कि अगर अच्छी बात भी सब से नहीं बांटी तो एक अच्छा अनुभव अनसुना, अनसमझा व अनबूझा ही रह जाएगा. यह भी गलत ही होगा. एक बड़ी खूबसूरत कहावत भी तो है न:

जबान शीरीं, मुल्क गीरीं,

जबान टेढ़ी, मुल्क बांका.

यानी कायदे से बोलना इतना फायदेमंद है कि सभी वश में हो जाते हैं. महाभारत की कथाओं में शिशुपाल का प्रसंग भी तो हमें यही समझाता है न कि शिशुपाल के वश में उस के शब्द थे ही नहीं. सहने की भी एक सीमा होती है, आखिरकार इस कड़वी वाणी और अंडबंड शब्दावली के चलते ही शिशुपाल को जान से हाथ धोना पड़ा. कहने का तात्पर्य यह है कि बोलना किसी कला से कम नहीं है. बात को रुई सा मुलायम और कोमल ही रहने देना चाहिए. रूखापन लाने से सभी का नुकसान होता है :

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