देश में एक पार्टी मजबूत हो रही है, एक ध्धमर्म मजबूत हो रहा है. संस्कार मजबूत हो रहे हैं. मंदिरों के खंबे मजबूत हो रहे हैं. सरकार की जनता पर पकड़ मजबूत हो रही है. पुलिस के पंजे मजबूत हो रहे हैं. कानून मजबूत हो रहा है. जो चीख सकते हैं, नारे लगा सकते हैं, मजबूत हो रहे हैं.

पर इस चक्कर में सामाजिक बंधन तारतार हो रहे हैं. सपने टूट रहे हैं. कल के भविष्य की आशाएं धूमिल हो रही हैं. चाहे घरों में बच्चे कम हो रहे हैं फिर भी उन्हें पढ़ाई कर के सुखी देखने की आशा टूट रह है. घरों की दीवारों का रंग फीका हो रहा है. ममहीन, सुखद, गारंटेड फ्यूचर की नींव कमजोर हो रही है.

जब देश में हर समय खबरें सिर्फ छापों, रेडों और पाॢटयों को तोडऩे की हो रही हो तो जोडऩे की बातें कहां होंगी. एक समाज तब बनता है जब पड़ोसी से, एक गली का दूसरी गली से जुड़ाव हो, एक ईलाके की मिसाल दूसरे इलाकों से हो, देश के निवासी अपने को व्यापक भीड़ में सुरक्षित समझें न कि भगदड़ का अंदेशा हो, ट्रैफिक जाम का डर हो, लंबी लाइनों का भय हो.

आंकड़ों में देश में सब कुछ अच्छा हो रहा है पर किसी के भी व्हाट्सएप गु्रप, ट्विटर अकाउंट, इंस्टाग्राम, फेसबुक के पेजों को देख लें, एक भय का साया दिख जाएगा. इस काले साए का रंग हर घर पड़ रहा है, पतिपत्नी संबंधों पर पड़ रहा है, भाईबहन पर पड़ रहा है.

सरकार जनता से इतनी भयभीत है कि हर चौराहे पर 4-5 कैमरें लगे हैं. हर मील में 2 जगह बैरीयर रखे हैं, सरकार हर समय आप का आधार नंबर, पैन नंबर, पासवर्ड, यूजर नेम पूछ रही है. हर समय डर लगता है कि बैंक अकाउंट केवाईसी के चक्कर में बंद न हो जाए, क्रेडिट कार्ड की पेमेंट डिक्लाइन न हो जाए, बिजली का बड़ा बिल न आ जाए. पैट्रोल गैस का दाम फिर न बढ़ जाएं. यह डर हर संबंध को दीमक और घुन की तरह खाता है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD48USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD100USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...