हमारे युवाओं में पढऩे की ललक नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि अकेले चीन में 23,000 भारतीय युवा मीडिकल की पढ़ाई करने नहीं जाते. विदेश में अपनों से दूर, अलग भाषा, अलग रहनसहन में मेडिकल की पढ़ाई का रिस्क लेना इन स्टूडेंट्स की किसी भी तरह एक स्किच जानवर अपना भविष्य बनाने का एम साबित करता है पर कोविड की वजह से ये अब भारत लौट कर अपनी आधीअधूरी पढ़ाई औन लाइन कर रहे हैं.

ये 2300 स्टूडेंट्स केवल बड़े शहरों के नहीं, यूपी, हरियाणा, उत्तराखंड, तमिलनाडू के भी हैं और अब इंतजार कर रहे हैं कोविड का कहर खत्म हो. हालांकि चीन लौटना इन के लिए बेहद मंहगा होगा क्योंकि इस समय एयर टिकट 1 लाख रुपए का है और फिर 15-20 दिन अपने खर्च पर क्वारंटीन होना पड़ता है. सस्ती फीस और एडमिशन के चक्कर में भी युवा चीन गए थे और इन्हें उम्मीद थी कि धीरेधीरे स्थिति ठीक होगी और वे चीनी डिग्री के साथ दुनियाभर में मेडिकल प्रेक्टिस करने की कोशिश कर सकते हैं.

जब यूक्रेन पर रूस ने हमला किया था तो भी पता चला कि कितने भारतीय स्टेडेंट्स वहां पढ़ रहे हैं जबकि यूक्रेन तो चीन की तरह विकसित भी नहीं है. भारतीय स्टूडेंट्स पहले अफगानिस्तान में पढ़ रहे थे. तजाकिस्तान, कजाकिस्तान जैसे पूर्व सोवियत संघ के देशों में भी हजारों छात्र हैं.

यह भारतीय एजूकेशन की पोल खोलता है कि देश अपने ही स्टूडेंट्स के प्रति इतना ज्यादा बेरहम है कि उन्हें शिक्षा बेचने वाली देशी विदेशी संस्थाओं के आगे लुटनेपिटने भेज देता है. अपने चारों ओर कोई आस न देख कर हार कर भारतीय स्टूडेंट्स जहां भी एडमिशन मिलता है वहां का रूख कर लेते हैं. मेडिकल के अलावा और बहुत से कोर्स आज विदेशों में किए जा रहे हैं.

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