अंधविश्वासी होने का दोष भले ही महिलाओं पर ज्यादा मढ़ा जाता हो पर पुरुष भी अंधविश्वास में पीछे नहीं हैं. जन्मपत्री, पूजापाठ और धर्मगुरुओं पर विश्वास के मामले में वे महिलाओं को पीछे छोड़ देते हैं. जो पुरुष धार्मिक कर्मकांडों में ज्यादा रुचि लेते हैं ऐसा नहीं है कि वे बहुत जागरुक हो गए हों. अकसर इस तरह वे ज्यादा अहंकारी और अपने कार्यक्षेत्र में खुद की मनमानी चलाने वाले होते हैं. ऐसे लोग घर में स्त्रियों पर ज्यादा हुक्म चलाने वाले और स्वेच्छाचारी होते है. उन का अंधा विश्वास उन्हें आत्मकेंद्रित करता है. ये उपयोगी विचारधाराओं को बिना समझे अपने पारंपरिक अंधविश्वासों पर टिके होते हैं. नई विचारधाराएं इन्हें पसंद नहीं आतीं और ये हर उस सोच से खुद को दूर रखते हैं जो उन की पुरानी सोच पर सवाल खड़ा करती है.
व्यक्ति अगर ईमानदारी और सचाई का पालन करे तो उसे पाखंड के सहारे की जरूरत नहीं पड़ती. महिलाएं तो अंधविश्वास, कर्मकांडों व आडंबरों के लिए बदनाम हैं ही. इस का कारण कुछ उन का अशिक्षित होना, कुछ धर्मभीरू महिलाओं के साथ उन का अधिक जुड़ाव होना है. लेकिन उन उच्च शिक्षित व उच्च पदों पर बैठे पुरुषों के बारे में क्या कहा जाए?
दरअसल, कोई भी विश्वास न एक दिन में टूटता है और न एक दिन में बनता है. ये अजीबोगरीब विश्वास बचपन से ही घर के वातावरण से धीरेधीरे पनपते हुए मजबूत होते जाते हैं. बाद में शिक्षा या आसपास के माहौल के प्रभाव से कुछ कम तो होते हैं पर इन की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि अंधविश्वासी व्यक्ति को कुछ बातें आधारहीन महसूस होने के बावजूद उन्हें अपने विश्वासों से बाहर आने में डर लगता है. सारे अंधविश्वास और कर्मकांड का मूल बस एक झूठी सीख है, जो ज्यादातर लोगों को उन के बचपन में ही मिल जाती है और वह यह कि तुम किसी भी तरह ईश्वर को खुश रख लो तो वह तुम्हारे सारे काम, सारी इच्छाएं पूरी करता चलेगा. यदि वह नाराज हो गया तो तुम्हारा बुरा कर सकता है. इसलिए लोग अपनेअपने तरीके से उसे खुश करने में लगे रहते हैं.