जहां लोग अपने बच्चों को दो वक्त की रोटी नहीं दे पाते, वहीं सुशीला सिंह 20 सालों से लगातार कई अनाथ बच्चियों को खूबसूरत जिंदगी दे रही हैं. सुशीला के द्वारा किया जा रहा यह काम सराहनीय है.
यों शुरू हुआ कारवां
सुशीला बताती हैं कि बचपन से समाजसेवा की ओर मेरा रुझान रहा है. बहुत छोटी उम्र में मैं अपने घर (राजस्थान) से एक मिशनरी के साथ इंदौर, मुंबई जैसे शहरों में समाजसेवा करने आई थी. एक संस्था के अंतर्गत काम करते हुए मैं ने कई केसेज देखे, जो इनसानियत को शर्मसार करने वाले थे. रैड लाइट एरिया में महिलाओं, नाबालिग और मासूम बच्चियों के साथ बदसलूकी की जा रही थी. स्ट्रीटगर्ल्स की जिंदगी दरिंदों ने बदतर बना दी थी. हालांकि अपराधियों को हम ने सलाखों के पीछे पहुंचवा दिया. लेकिन मन में एक सवाल टीस बन कर चुभता कि शाम 5 बजे हमारे घर लौट जाने के बाद इन बच्चियों का क्या होगा? बारबार सिर उठाते इस सवाल ने मुझे संस्था की स्थापना करने पर मजबूर कर दिया.
मुंबई में अपने बसेबसाए घर को छोड़ कर मैं पति के साथ ठाणे के उत्तन गांव में आ बसी और 1996 में 4 अनाथ बच्चियों के साथ मैं ने ‘आमचा घर’ संस्था की स्थापना की.
आसान नहीं थी राह
अपने संघर्ष के बारे में सुशीला ने बताया कि संस्था की स्थापना तो कर दी, लेकिन इसे चलाने के लिए पैसे नहीं थे. तब महसूस हुआ कि पैसा हार्डवर्क और डैडिकेशन से भी बड़ा होता है. शुरुआत में मेरे पति ने काफी मदद की. परिवार वाले ताने देते ‘लोग पैसा कमाते हैं तुम गवां रही हो, पागल हो गई हो’ लेकिन मैं पीछे नहीं हटी.
स्कूल में बच्चियों के दाखिले के लिए कुछ संस्थाएं मदद के लिए आगे आईं, पर वे चाहते थे कि बच्चियां मराठी माध्यम से पढे़ं, जबकि मैं उन्हें अंगरेजी माध्यम से पढ़ाना चाहती थी. मैं खुद हिंदी माध्यम से पढ़ी थी. गांव में मैं बकरियां चराया करती थी और मेरी मां बकरियों का दूध बेच कर मेरी फीस भरती थीं. मुंबई आने पर मुझे महसूस हुआ कि अंगरेजी आना जरूरी है. मेरे मन में बस यही खयाल आता कि अगर ये मेरे अपने बच्चे होते, तो क्या मैं इन्हें सिर्फ मराठी माध्यम से पढ़ाती? एक बात यह भी थी कि इन बच्चियों पर पहले से अनाथ की मुहर लगी थी.
गर्व महसूस होता है
अपने काम पर सुशीला को गर्व है. वे कहती हैं कि रैड लाइट एरिया में कार्यरत महिलाएं जो एड्स की वजह से मर गईं, उन के बच्चों को भी ‘आमचा घर’ ने पनाह दी. धीरेधीरे बच्चियों की संख्या बढ़ने लगी. बाहर के स्कूलों में पढ़ाना बहुत मुश्किल हो रहा था, इसलिए लोन ले कर मैं ने ‘आमचा घर’ स्कूल खोला, जहां पढ़ाई के साथसाथ बच्चियों को कंप्यूटर ट्रेनिंग और कराटे भी सिखाए जाते है. मेरे सारे बच्चे अंगरेजी में बात करते हैं. कई बच्चे आज हाई पोस्ट पर कार्यरत हैं. कुछ शादी कर के सैटल हो गई हैं. मेरे 20 साल के अनुभव में मेरा एक भी बच्चा गलत राह पर नहीं गया है.
मैं अपने बच्चों से यही कहती हूं कि मैं ने अपना सब कुछ छोड़ कर समाजसेवा की, आप भी कुछ ऐसा करो कि लोग आप को आप के काम से जानें.
बेचारे नहीं मेरे बच्चे
सुशीला कहती हैं कि मेरे बच्चे कहीं से भी बेचारे नहीं लगते, क्योंकि कोई जना अगर दोनों संस्थाओं को 500-500 देता है, तो कुछ संस्था बच्चों पर 250 खर्च करती है, लेकिन मैं पूरे 500 बच्चों पर खर्च करती हूं, जिस से बच्चों में काफी सुधार देखने को मिलता है, जबकि बाकी बच्चे आज भी बेचारे नजर आते हैं, इसलिए उन्हें ज्यादा डोनेशन दिया जाता है.
अपनी निजी जिंदगी के बारे में बात करते हुए सुशीला कहती हैं कि हालांकि मैं ने अपनी पूरी जिंदगी ‘आमचा घर’ के बच्चों को समर्पित कर दी है, लेकिन इस बीच मैं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने के लिए भी वक्त निकालती हूं.
जीवन का सहारा
अपने काम से फ्री होने के बाद मैं अपने पति के साथ क्वालिटी टाइम बिताना नहीं भूलती. मैं उन के साथ दिन भर में हुई सारी बातें शेयर करती हूं. इस दौरान हम नईनई योजनाएं भी बनाते हैं, जैसे छुट्टियों में हम कहां घूमने जाएंगे इत्यादि.
जब अपने ससुराल जाती हूं, तो बहू की सारी जिम्मेदारी निभाती हूं और जब अपने मायके राजस्थान में होती हूं, तो घर की छोटी बेटी बन जाती हूं. मैं अपनी निजी जिंदगी और अपने काम को अलगअलग रखती हूं.
मेरा मानना है कि परिवार के सहयोग के बिना किसी भी काम में सफलता पाना दुश्वार हो जाता है.
अपने कठिन फैसले के बारे में बताते हुए सुशीला कहती हैं कि हम ने तय किया था कि हम अपनी संतान पैदा नहीं करेंगे. इन्हीं बच्चियों की परवरिश करेंगे. मुझे कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि ये हमारे अपने बच्चे नहीं हैं.
आज भी जब मुसीबत आती है, तो ये बच्चियां ससुराल छोड़ कर आ जाती हैं. इन से मैं ने यह जाना है कि जरूरी नहीं है कि आप का अपना बच्चा, आप का खून ही आप को संभाले. ऐसे बच्चे भी जीवन का सहारा बन सकते हैं.