अंगरेजों की हुकूमत के दौरान भारत में बग्घियों का चलन शान समझा जाता था. बग्घियों को घोड़े खींचते थे और इन बग्घियों की सजावट पर काफी ध्यान दिया जाता था. इन के कलपुर्जों को तैयार करने के लिए लोहे व तांबे का प्रयोग किया जाता था. उन के बाकी इंटीरियर व सजावट में लकड़ी, पीतल के साथ सोने और चांदी तक का प्रयोग किया जाता था. बग्घियों की सजावट में जिन कपड़ों का प्रयोग होता था वे बेहद खास होते थे. उन पर महीन कसीदाकारी भी होती थी. बग्घियों को शाही सवारी का दरजा हासिल था. ज्यादातर अंगरेज अफसर, राजारजवाड़े और नवाब इन का प्रयोग करते थे. मोटरकार जब चलन में आ गई थी, उस के बाद भी शान दिखाने के लिए बग्घियों की सवारी की जाती थी. बग्घियों और सामान्य कार में अंतर यह होता है कि बग्घी कार से ऊंची होती है. बैठने वाले को अपने ऊंचे होने का एहसास होता रहता है.
देश के कार बाजार में लंबे समय तक एंबैसेडर कार का जलवा था. सालोंसाल तक एंबैसेडर कार चली. पुरानी कार की भी रीसेल वैल्यू होती थी. 1980 के बाद देश के कार बाजार में मारुति कार और जिप्सी जीप का दबदबा बढ़ने लगा. मारुति कार की खासीयत तेज रफ्तार और ईंधन की कम खपत थी. मारुति की छोटी सी कार ने देश के लोगों का दिल जीत लिया. मारुति की तरह दूसरी कार कंपनियों ने भी छोटी कार के बाजार को बढ़ा दिया. मारुति की छोटी कार ने एंबैसेडर को हाशिए पर ढकेल दिया. मारुति कार का यह दौर एक दशक तक बाजार पर छाया रहा.