रात 8 बजे संगीता ने कीर्ति को फोन मिलाया और रोज की तरह दिनभर की गौसिप शुरू कर दी.

‘‘आज फिर बौस ने सब के सामने मुझे फटकार लगाई. मैं सब समझती हूं. ये सब वह अर्पिता के सामने ज्यादा करता हैं,’’ संगीता ने अपना रोना रोते हुए कहा.

‘‘अर्पिता कौन?’’

‘‘बताया तो था वह नई कोआर्डिनेटर’’

‘‘उस पर इंप्रैशन जमा रहा होगा कुछ दिनों बाद शांत हो जाएगा.’’

‘‘मु?ा से बरदाश्त नहीं होता. मन करता है जौब छोड़ दूं.’’

‘‘इसे जौइन करे 6 महीने ही हुए हैं छोड़ देगी तो बौस का क्या बिगड़ जाएगा? नुकसान तो तेरा ही होगा.’’

‘‘फिर क्या करूं?’’

‘‘जो बातें बुरी लगी है उन सब को डायरी में नोट कर ले. नई नौकरी ढूंढ़ती रह. जब मिल जाए तो अपने खड़ूस बौस को सारी बातें सुना कर ही जाना.’’

‘‘नई नौकरी नहीं मिली तो क्या करूंगी?’’

‘‘लिखने से तेरी भड़ास तो निकल जाएगी और हो सकता है तेरे बौस को ही नई नौकरी मिल जाए.’’

‘‘यानी बौस ही बदल जाएगा. ठीक है यह भी कर के देख लेती हूं.’’

‘‘छोड़ फालतू बातें, यह बता ऋषभ से तेरी दोस्ती कहां तक पहुंची?’’

कीर्ति की बात सुनते ही संगीता का मूड चेंज हो गया और वह हंस कर, ऋषभ के संग अपने रिश्ते को बताने लगी.

संगीता इकलौती संतान है. स्कूलकालेज की सहेलियां अपनी नौकरी या नई गृहस्थी में व्यस्त हो चुकी हैं. उसे यहां बैंगलुरु में आ कर अचानक एहसास होने लगा कि वह कितनी अकेली हो गई है. वह जल्दी मित्र नहीं बना पाती और पुरानी सहेलियों को भी क्या डिस्टर्ब करे, सोच कर मन ही मन घुट रही थी कि एक दिन मौल में कीर्ति मिल गई. दोनों एक ही शहर कानपुर से हैं, यह जान कर दोनों बहुत खुश हो गईं. अब तीजत्योहार पर साथ ही घर जाने लगी हैं. धीरेधीरे कीर्ति संगीता की प्रिय सहेली बन चुकी है जिस से वह अपनी हर बात शेयर कर सकती है.

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